Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड
६. कथञ्चित् है तथापि अबक्तव्य है । ७. कथञ्चित् है नहीं है, पर अवक्तव्य है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपने महान् सिद्धान्त सापेक्षवाद को इसी भूमिका पर प्रतिष्ठित किया है । यह उदार दृष्टिकोण विश्व के दर्शनों, धर्मों, सम्प्रदायों एवं पंथों का समन्वय करता है। किसी भी धर्म के सत्यांश को ग्रहण कर जीवन को उन्नत बनाने की प्रणाली ही अनेकांत है। जहाँ एकान्तवाद द्वेष उत्पन्न कर व्यक्ति व समाज के बीच दीवारें खड़ी करता है वहाँ अनेकान्तवाद समन्वय का प्रशस्त राजमार्ग प्रस्तुत करता है। महावीर ने बतायायदि तुम अपने को सही मानते हो तो ठीक है, परन्तु दूसरे को गलत मत समझो। क्योंकि ज्ञान के एक अंश की जानकारी तुम्हें है तो दूसरे अंश की अन्य को भी हो सकती है । सर्वज्ञ ही उसे पूर्णतः सत्यांश से जान सकता है। सर्वोदय का मार्ग : अपरिग्रहवाद
विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद हम सभी विश्व-शान्ति के लिए प्रयत्नशील हैं तथापि आज शीतयुद्ध का वातावरण बना ही हुआ है। कारण एक ही है - आर्थिक वैषम्य । अनावश्यक और अनुचित संचय ही संघर्ष और हिंसा को प्रोत्साहन देते हैं। आज अधिक उत्पादन की ओर संसार जुटा हुआ है। दिनानुदिन आवश्यकतायें इतनी बढ़ती जा रही हैं कि उनकी पूर्ति के लिए ही जीवन समाप्त हो जाता है । उपभोग के लिए भी अवकाश नहीं मिलता। जब कि व्यक्ति स्वातंत्र्यमूलक और जनतान्त्रिक परम्परा का अनुगमन करने वाली श्रमणों की साधना ने यह संकेत दिया है कि यदि समाज और राष्ट्र में शान्ति व सन्तुलन की स्थापना करनी है तो व्यक्ति को ही सर्वप्रथम अपना आंतरिक विकास करते हुए जीवन की आवश्यकताओं को कम करना चाहिए ताकि अनावश्यक स्वार्थलिप्सा और वासनाविवर्द्धक तत्त्वों को पनपने का अवसर ही न मिले। जीवन एक ऐसी वस्तु है कि उसे किसी भी ढांचे में ढाला जा सकता है । अपरिग्रहवाद जनतंत्र की बहुत बड़ी शक्ति है। सरल जीवन और उच्च आदर्श ही अहिंसा और अपरिग्रह का पोषण कर सकते हैं। एक ओर अट्टालिकाओं में रहकर पोषक एवं रुचिप्रद भोजन पचाने के लिए औषधियां प्रयुक्त की जा रही हैं तो दूसरी ओर सड़क पर पड़ा व्यक्ति भूख से दम तोड़ रहा है। इस प्रकार की भयावह असमानता दूर करने का एकमात्र उपाय है अपरिग्रह ।
जहाँ व्यक्ति समाज के प्रति उदासीन होकर स्वार्थपूर्ति में केन्द्रित हो जाता है, वहाँ दूसरों के हित प्रभावित किए बिना नहीं रह सकता। अतः महावीर ने अनावश्यक संग्रह न करने एवं ममत्व कम करने का संदेश दिया है। संसार में झूठ, अन्याय, छल, हिंसा, संघर्ष के मूल में परिग्रह की प्रबल इच्छा है। अतः महावीर ने बताया कि सभी अनों का मूल अर्थ है और आवश्यकतायें अनंत हैं । इच्छा को आकाश के समान अनंत बताकर इसे परिमित करना ही अपरिग्रह है। वस्तुतः ममत्व या मूर्छा भाव से संग्रह करना परिग्रह है। जो परिग्रह (संग्रह वृत्ति) में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते हैं। भगवान महावीर ने सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए सक्रिय प्रयास किये हैं। उन्होंने केवल बाह्य कारणों को ही समाप्त करना पर्याप्त नहीं माना वरन् आन्तरिक मूल कारण (संग्रहवृत्ति, आसक्ति) खोजकर इसे समूल उखाड़ फेंकने की राय दी। परिग्रह को व्यक्ति सुख का साधन समझता है परन्तु उसमें आसक्त होकर दुःखी हो जाता है । अन्ततः यह ममत्व ही हमें बन्धन में डालता है ।
पदार्थ उपभोग के लिए है परन्तु अनावश्यक संग्रह, आसक्ति, ममत्व, अनर्थदण्ड है। एक ओर पेटियों में बन्द वस्त्रों को कोई खा जाएं और दूसरी ओर वस्त्रों के अभाव में लोग अर्द्धनग्न-सा जीवन यापन करे यह वैषम्य दूर करने पर ही शान्ति, सुख सम्भव है । परिग्रह की भावना से प्रेरित होने पर ही राष्ट्रों में युद्ध होते हैं। अतः इस मूल कारण से बचना विश्वशान्ति को आमंत्रण देना है। मार्क्स ने साम्यवाद का नारा देकर समाज को जगाया पर महावीर की विवेचना उससे भी आगे है। इसका केन्द्रबिन्दु जड़ पदार्थ नहीं, वरन् व्यक्ति स्वयं है। जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा अपरिग्रह से ही सम्भव है और अपरिग्रह की आधारशिला अहिंसा है। इसीप्रकार अनेकान्तवाद का व्यावहारिक रूप या आचारगत रूप अहिंसा है। अतः समता-धर्म की साधनारूप यह त्रिवेणी परस्पर आबद्ध विचारों की शृंखला
उपसंहारात्मक : एक दृष्टि
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भगवान महावीर के सिद्धान्तों का पालन कर हम विश्वबन्धुत्व की पृष्ठभूमि में विश्वशान्ति स्थापित कर सकते हैं। जहाँ महावीर ने जन्मगत एवं वर्णगत भेदभाव मिटाने के लिए समाज को नई
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