Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
कहना न होगा कि ये सब भक्ति की अभिव्यक्ति की शैलियाँ मात्र हैं । भाव के विचार से इनमें एकदूसरे में कोई अन्तर नहीं है ।
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स्तुति स्तोत्र स्तवन इत्यादि आराध्य के गुणों की प्रशंसा करना स्तुति है। ऐसी स्तुतियाँ साधक के कर्ममल दूर करने में सहायक होती हैं। जैन रामकथा के अनुसार राम-लक्ष्मण-सीता ने अयोध्या से निकलकर सिद्धवरकूट में विश्राम किया और फिर जिनेन्द्र की वन्दना की। उन्होंने सहस्रकूट पर स्थित जिनेन्द्र की स्तुति की थी। मुनि कुलभूषण देशभूषण को होने वाले उपद्रव को राम ने दूर किया । तदनन्तर जब मुनिवरों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तो राम ने उनकी वन्दना की । हनुमान ने मन्दराचल पर स्तुति की। इस प्रकार की स्तुतियों के रामकथा में अनेक उदाहरण मिलते हैं । स्वयम्भु आदि जैन ग्रन्थकर्ता ग्रन्थारम्भ में जिनवन्दना करते हैं । इस प्रकार बन्दना और विनय के भी उदाहरण पाए जाते हैं ।
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मंगल -- जो मल को गलाकर नष्ट करता है, वह मंगल कहलाता है। उससे आत्मा शुद्ध होते हुए परमसुख का अनुभव करती है। राम द्वारा भगवान जिनेन्द्र की वन्दना करते हुए उनके अनेक नामों का स्मरण करना (पउमपरि सन्धि ४३ ) रावण की कैलास यात्रा (सन्धि १३), नन्दीश्वर महोत्सव (सन्धि ७१) आदि मंगल भक्ति के उदाह रण है । कोटिशिला उठाने के पूर्व लक्ष्मण ने चारों मंगलों का उच्चारण किया ( सन्धि ४४ ) ।
महोत्सव — इसमें नृत्य, गायन, वादन, रथ यात्रा आदि द्वारा भक्त की भक्ति की अभिव्यक्ति होती है । मुनियों के पूजन के पश्चात् सीता ने भक्ति-पूर्वक नृत्य किया था (सन्धि ३२ ) । रावण ने कैलास-उद्धरण के अनन्तर भक्ति-पूर्वक गायन किया था (सन्धि १३ ) । इसी प्रकार लक्ष्मण द्वारा गान करने (सन्धि ३२ ) और राम द्वारा सुघोष वीणा बजाने का उल्लेख मिलता है । हरिषेण प्रकरण में रथ यात्रा का भी उल्लेख है । रावण ने लंका में बड़े उत्साह के साथ नन्दीश्वर उत्सव सम्पन्न किया था ( सन्धि ७१ ) ।
इस भक्ति भावना की अभिव्यक्ति के लिए अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, तीर्थंकर आदि आलम्बनस्वरूप है ।
(ग) तप — जैन शास्त्रों के अनुसार, कर्म-निर्जरा के लिए जिस महान पुरुषार्थं या प्रयास की आवश्यकता होती है, उसे तप कहते हैं । तप के मुख्य दो भेद हैं- बाह्यतप और आभ्यन्तरतप । इनमें से प्रत्येक के छह-छह उपभेद हैं । जैन रामकथा में बताया गया है कि दशरथ, हनुमान, बाली, राम आदि अनेक व्यक्तियों ने यथाकाल घरबार का त्याग करके तप के लिए प्रस्थान किया ।
तप का आचरण आसान नहीं है । तप करने वाले के मार्ग में अनेक बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं, तप करने वाले को प्रलोभन दिखाए जाते हैं, उपद्रव भी किया जाता है । फिर भी साधक को अविचल रहना चाहिए । मुनि देशभूषण कुलभूषण का तप प्रकरण इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। राम के तप की कथा (सन्धि १०) मी इस दृष्टि से ध्यान देने योग्य है ।
(घ) ध्यान - तप करने वाला साधक ध्यान द्वारा कर्मों का नाश करता है। घातिकर्मों का नाश करने के उपरान्त साधक को केवलज्ञान प्राप्त होता है। राम आदि ध्यान द्वारा ही केवली हुए हैं ।
(ङ) अनुप्रेक्षाएँ - जैनदर्शन के अनुसार, शरीर तथा संसार की अन्यान्य वस्तुओं को प्रकृति का तथा उचित सिद्धान्तों का अनवरत चिन्तन ही 'अनुप्रेक्षा' है अनुप्रेक्षा के बारह भेद माने गए है। वस्तुतः इन बारह अनुप्रेक्षाओं में जैन दर्शन के बहुत से प्रमुख सिद्धान्त समाविष्ट हैं। अनुप्रेक्षा कर्मबन्ध से मुक्ति प्राप्त करने का प्रमुख साधन है । अतः विमलसूरि, रविषेणापायं तथा स्वयम्भु जैसे राम-कथाकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में अनुप्रेक्षाओं का विस्तारपूर्वक उल्ले किया है।
इन्द्रजित ने हनुमान को नागपाश में आबद्ध करके रावण के सम्मुख उपस्थित कर दिया, तो हनुमान ने रावण को सन्मार्ग का उपदेश देते हुए द्वादश अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया। ये अनुप्रेक्षाएँ नीचे लिखे अनुसार हैं :
१. अव जीवन, सम्पत्ति संसार-सब क्षणिक है, केवल धर्म अस्थिर नहीं है ।
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मात्र सहारा है ।
२. अशरण - मृत्यु से हमारी कोई भी रक्षा नहीं कर सकता । इस अशरण अवस्था में धर्म ही जीव का एक
३. एकत्व - संसार में जीव का सुख-दुख में, जन्म-मृत्यु आदि में कोई भी साथी नहीं है । केवल उसके सुकृत दुष्कृत उसके साथ रहते हैं ।
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