Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
प्राकृत में या संस्कृत मिश्रित प्राकृत में है, जिसे चूणि कहा जाता है। चूणियाँ आगमों पर और आगमेतर अन्य ग्रन्थों पर लिखी गई लेकिन उनकी संख्या अल्प है।
जिन आगम ग्रन्थों पर चूर्णियां लिखी गई उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं:-आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, जीवाभिगम, निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प, दशाश्रु तस्कंध, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशर्वकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति । नियुक्तियों एवं अन्य ग्रन्थों पर भी चूर्णियां लिखी गई हैं।
चूर्णिकार के रूप में जिनदासगणी महत्तर का नाम प्रसिद्ध है। इन्होंने कितनी चूर्णियां लिखीं यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। फिर भी निशीथ, नन्दी, अनुयोगद्वार, आवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग आगमों की चूणियाँ इनके द्वारा रचित हैं।
जिनदासगणी महत्तर की जीवनी के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती। निशीथचूणि के अन्त में चूर्णिकार का नाम जिनदास बताया है और उसके प्रारम्भ में विद्यागुरु के रूप में प्रद्युम्न क्षमाश्रमण का नाम तथा उत्तराध्ययनचूणि के अन्त में जो प्रशस्ति दी है, उसमें इनके नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु गुरु का नाम गोपालगणी महत्तर है। जिनदासगणी के समय के बारे में उपलब्ध साक्ष्यों से इतना ही कहा जा सकता है कि ये भाष्यकार आचार्य जिनभद्र के बाद और टीकाकार आचार्य हरिमद्र के पूर्व हुए हैं। क्योंकि जिनदासगणी महत्तर ने आचार्य जिनमद्र के भाष्य की अनेक गाथाओं का अपनी चूणियों में और आचार्य हरिभद्र ने इनकी चूणियों का अपनी टीकाओं में यथास्थान उपयोग किया है। अतः इन दोनों के मध्य में जिनदासगणी का समय उचित प्रतीत होता है। आचार्य जिनमद्र का समय विक्रम सं०६००-६६० के आसपास है और हरिभद्र का समय वि० सं०७५७ से ८२७ के मध्य । अतः जिनदासगणी का समय विक्रम सं० ६५०-७५० के बीच मानना चाहिये।
जिनदासगणी महत्तर के अतिरिक्त सिद्धसेनसूरि, प्रलम्बसूरि और अगस्त्यसिंहसूरि ने भी कुछ चूर्णियाँ लिखी हैं।
___टीकाकार-आगमों की संस्कृत भाषा में लिखी गई गद्य व्याख्यायें टीका के नाम से प्रसिद्ध हैं । संस्कृत भाषा का विशेष प्रचार-प्रभाव बढ़ने पर जैनाचार्यों ने भी अपने प्राचीनतम आगमग्रन्थों पर संस्कृत में टीका में लिखना प्रारम्भ किया । जिनमें प्राचीन नियुक्तियाँ, भाष्य और चूणियों का उपयोग तो किया ही साथ में नये नये तकों, हेतुओं द्वारा पूर्व सामग्री को व्यापक बनाया । प्रायः प्रत्येक आगम पर टीकाएँ मिलती हैं।
टीकाकारों में हरिभद्रसूरि, शीलांकसूरि, वादिवेताल शान्तिसूरि, अभयदेवसूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र के नाम प्रमुख हैं। किन्तु इन टीकाकारों से भी पूर्व आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । जिन्होंने विशेषाश्यकभाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति लिखना प्रारम्भ किया था पर उसे वे अपने जीवनकाल में समाप्त न कर सके और उस अपूर्ण वृत्ति को कोट्याचार्य ने पूर्ण किया । इस दृष्टि से आचार्य जिनभद्र को अन्य टीकाकारों से भी पूर्ववर्ती प्राचीन आगमिक टीकाकार के रूप में स्मरण कर सकते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि आदि प्रमुख टीकाकार के अतिरिक्त अन्य टीकाकार भी हुए हैं । जिनरलकोश आदि में आचार्यों के नाम उल्लिखित हैं जिन्होंने आगम साहित्य पर टीकायें लिखी हैं।
हरिभ्रद्रसूरि जैन आगमों के प्राचीन टीकाकार हैं। इन्होंने आवश्यक, दशवकालिक, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार आगमों पर टीकायें लिखी हैं। आपका जन्म चित्तौड़ में हुआ । वे वहाँ के राजा जितारि के राज पुरोहित थे । गच्छपति गुरु का नाम जिनभट, दीक्षागुरु का नाम जिनदत्त, धर्म-जननी का नाम याकिनी महत्तरा, धर्मकुल का नाम विद्याधर गच्छ है । इनका समय विक्रम सं०७५७-८२० अर्थात् ई० सन् ७००-७७० है। कहा जाता है कि हरिभद्रसूरि ने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी। उनमें से ७५ ग्रन्थ तो अभी उपलब्ध हैं जिनको देखने से इनकी विद्वत्ता का पता लगता है कि ये एक बड़े बहुश्रु त विद्वान थे।
आचार्य शीलांक के लिए कहा जाता है कि इन्होंने प्रथम नौ अंगों पर टीकायें लिखी थीं। पर वर्तमान में आचारांग और सूत्रकृतांग की टीकायें उपलब्ध हैं । आचारांगटीका की प्रतियों में भिन्न-भिन्न समय का उल्लेख है, जैसे किसी पर शक संवत ७७२ तो किसी पर शक सं ७८४ या ७९८ । इससे शक की आठवीं अर्थात विक्रम की नौवीं-दसवीं शताब्दी इनका समय माना जा सकता है । शीलांकाचार्य शीलाचार्य एवं तत्त्वादित्य के नाम से भी ये प्रसिद्ध हैं।
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