Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
समाणु, सम्प्रदान के लिए-तेहिं, केहिं, अपादान के लिए-लइ, होन्तउ,-ठिन, पासिउ, सम्बन्ध के लिए-तण,-तणि,केरउ तथा अधिकरण के लिए-मझे-मज्झि जैसे परसर्गों का बहुल प्रयोग अपभ्रंश साहित्य में हुआ है।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में परसर्गों का विकास हुआ है। इनके प्रयोग में सभी भाषाओं की स्थिति समान नहीं है । आज भी कुछ भाषायें कारकीय अर्थों को परसर्गों से नहीं अपितु शब्द के विभक्तियुक्त रूपों से द्योतित कर रही हैं किन्तु फिर भी परसों का प्रयोग कम या अधिक सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में होता है। जिन भाषाओं में विभक्तियुक्त शब्द द्वारा कारक का अर्थ व्यक्त किया जाता है उनमें भी अलग-अलग कारक के लिए अलगअलग विभक्ति रूपों का सम्बन्ध सुनिश्चित नहीं है । यथाः-मराठी में एक ही कारक को व्यक्त करने के लिए अनेक विभक्तियों का प्रयोग होता है तथा एक ही विभक्ति अनेक कारकों का अर्थ व्यक्त करती है ।२° उसमें भी तृतीया के ने,नी, पंचमी के -ऊन,-हून तथा षष्ठी में प्रयुक्त-चा, ची, चे, च्या आदि रूपों को परसर्ग कोटि में रखा जा सकता है। इसी प्रकार बंगला की प्रकृति भी अपेक्षाकृत संश्लिष्ट है किन्तु वहाँ भी दिया, द्वारा, के दिया, संगे, हइते, थेके जैसे शब्दांशों की स्थिति परसों की ही है। यथा:
मन दिया पढ़ (मन से पढ़ो); तोमा वारा हाइवे ना (तुमसे नहीं होगा) बहू के बिया गंघाउ (बहू से रसोई बनवाओ) आमी बंधु संगे देखा करिते गल (मैं मित्र से मिलने गया) बाड़ी हइते चलिया गेल (घर से चला गया) बाड़ी थेके चलिया गेल (
)२ गुजराती में भी सम्प्रदान में 'माटे' तथा संबंध के लिए ना, नी का प्रयोग होता है। पंजाबी में भी संबंध में 'दा', 'दी', का प्रयोग होता है।
परसों के प्रयोग के संबंध में हिन्दी की स्थिति अधिक स्पष्ट है । हिन्दी में संज्ञा शब्दों में कारकीय अर्थों को विश्लिष्ट प्रकृति के परसर्गों द्वारा ही व्यक्त किया जाता है ।
हिन्दी में परसर्गों का विकास आरम्भ से ही अधिक हुआ। हिन्दी के आदिकालीन साहित्य में ही विभिन्न कारकीय रूपों को सम्पन्न करने के लिए परसर्गों का प्रयोग मिलता है । कर्ता के अर्थ में डा० उदयनारायण तिवारी ने चंदबरदाई की भाषा में 'ने' का प्रयोग स्वीकार किया है ।२२ कीतिलता की भाषा में कर्ता के अर्थ में-आ,ए.ओ का प्रयोग हुआ है ।
कर्म के अर्थ में 'को' का प्रयोग ११वीं सदी से राउलबेल में मिलने लगता है। बीसलदेव रास' में '' एवं कीतिलता२५ मे 'हि,' 'हिं' का प्रयोग कर्मकारक के अर्थ में हुआ है।
करण के अर्थ में कीर्तिलता में 'ए' 'एन' 'हि' का पृथ्वीराजरासो२° में 'ते', 'वाचा', 'से' 'सहुँ', 'तूं', 'सौं', तथा खुरारो के काव्य में 'से' का प्रयोग मिलता है।
इसी प्रकार की स्थिति अन्य कारकीय अर्थों को व्यक्त करने के सम्बन्ध में है। (३) भाषा प्रकृति अर्धा अयोगात्मक
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विवेचना करते समय प्रायः विद्वानों ने उन्हें अयोगात्मक भाषायें कहा है। यह ठीक है कि 'हिन्दी' ने अपभ्रंश की अर्द्ध-अयोगात्मक स्थिति की अपेक्षा अयोगात्मकता की ओर अधिक विकास किया है तथापि भाषा-प्रकृति की दृष्टि से आज भी आधुनिक भारतीय आर्यभाषायें अर्द्ध-अयोगात्मक हैं । शब्द के वैभक्तिक रूप भी मिलते हैं तथा परसर्गों का भी प्रयोग होता है । कारकीय रूपरचना में विभिन्न भाषाओं में विभक्तियाँ संश्लिष्ट रूप में भी व्यवहुत होती हैं। उदाहरणार्थ, सिन्धी एवं पंजाबी में अपादान एवं अधिकरण कारकों में; गूजराती में करण एवं अधिकरण में, मराठी में करण, सम्प्रदान तथा अधिकरण में तथा इसी प्रकार उड़िया में अधिकरण में विभक्तियों का संयोगात्मक रूप द्रष्टव्य है । बंगला में भी सम्बन्धतत्व संश्लिष्ट रूप में प्राप्त होता है।
हिन्दी में भी सर्वनाम रूपों में कर्म सम्प्रदान में इसे, उसे, इन्हें, उन्हें, तुझे जैसे रूप मिलते हैं जिनकी प्रकृति संश्लिष्ट है। यह बात अलग है कि हिन्दी में इनके वियोगात्मक रूप भी उपलब्ध है यथा-इसको, उसको, उनको, इनको तुझको । इसी प्रकार वर्तमान सम्भावनार्थ-पटू, पढ़े, पढ़ें, पढ़ो तथा आज्ञार्थक-पढ़ना, पढ़ियेगा, पढ़ो, पढ़ में संयोगात्मकता की स्थिति देखी जा सकती है। (४) नपुंसक लिंग को स्थिति
अपभ्रंश काल में नपुंसकलिंग का लोप हो गया था । आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में मराठी एवं गुजराती
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