Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करममि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
आधुनिक भारतीय भाषाओं के वर्तमान आज्ञार्थक रूपों का विकास भी मध्यकालीन भारतीय क्रियारूपों से हुआ है।
अपभ्रश में भविष्यकालिक रूपों की रचना में धातु में विभक्ति लगने के पूर्व "इस्स" अथवा "इह" प्रत्यय जुड़ता था। गुजराती-करीश, करिशंकरशे आदि रूपों में "इस्स" का तथा हिन्दी की ब्रज आदि बोलियों के–करिहौं, करिहैं आदि में "इह" का प्रभाव विद्यमान है । (७) क्रिया के कृदन्तीय रूपों का प्रयोग
प्राचीन भारतीय आर्यभाषाकाल में भूतकालिक रचना के कई प्रकार थे। लङ ० से असम्पन्न भूत, लुङ० से सामान्यभूत तथा लिट् से सम्पन्न भूतकाल की रचना होती थी। उदाहरणार्थ गम् धातु के रूप अगच्छत्, अगमत् एवं जगाम बनते थे। इनमें क्रियारूप विद्यमान था।
प्राकृत अपभ्रंश युग में इनके बदले भूतकाल भावे या कर्मणि-कृदन्त 'गत" लगाकर बनाया जाने लगा।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में कर्मणि कृदन्त रूप तो विद्यमान हैं ही; कृदन्तीय रूपों से काल रचना होने लगी है।
अधिकांश आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में वर्तमानकालिक कृदन्तीय रूप में पुरुष एवं लिंगवाचक प्रत्यय लगाकर कालरचना होती है। यथा-हिन्दी-करता । गुजराती-करत । बंगला-करित । मराठी-करित । उड़िया-करन्त ।
इसी प्रकार भूतकालिक कृदन्तीय रूपों से भी कालरचना सम्पन्न होती है । अपभ्रंश में भूतकालिक कृदन्त रूप विशेषणात्मक रूप में पूर्ण क्रिया के स्थान में भी व्यवहृत होने लगे थे । आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में हिन्दीगया, गुजराती-लीधु जैसे रूप वर्तमान है।
- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से बंगला, उड़िया, असमिया, भोजपुरी, मैथिली, मराठी आदि में भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय "ल" जुड़ता है । यथा-बंगला-गेल, होइल, मराठी-गेलों, गेलास, भोजपुरी-मारलो, मारलास । इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इस भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय का प्रयोग परवर्ती अपभ्रंश में हुआ है। राउलवेल की भाषा में इसका प्रयोग देखा जा सकता है।" (८) क्रियाओं में लिंगभेद
__अपभ्रश में कृदन्ती रूपों में लिंगभेद किया जाता था। हिन्दी जैसी भाषाओं में क्रियाओं में लिंगभेद का कारण अपभ्रंश के कृदन्तीय रूपों का क्रिया रूपों में प्रयोग है। कृदन्त रूपों को क्रिया रूपों में अपनाने के कारण हिन्दी में पढ़ता; पढ़ती; पढ़ा आदि क्रियाओं में लिंगभेद मिलता है। मराठी में भी मी जातो (मैं जाता है) एवं मी जाते (मैं जाती हूँ) तथा तू जातोस (तू जाता है) एवं तू जातेस (तू जाती है) क्रियाओं में लिंगभेद द्रष्टव्य है। (९) संयुक्त कालरचना एवं संयुक्त किया निर्माण
हिन्दी जैसी भाषाओं में मूल धातुओं में प्रत्यय लगाकर कालरचना की अपेक्षा वर्तमानकालिक कृदन्त एवं भूतकालिक कृदन्त रूपों के साथ सहायक क्रियाओं को जोड़कर विविध कालों की रचना की जाती है। इसी प्रकार क्रिया के विभिन्न अर्थों को व्यक्त करने के लिये मुख्य क्रिया रूप के साथ सहकारी क्रियाओं को संयुक्त किया जाता है। मध्य-भारतीय आर्यभाषाकाल तक इस प्रकार की भाषायी प्रवृत्ति परिलक्षित नहीं होती। इस कारण विद्वानों ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में संयुक्त काल रचना एवं संयुक्त क्रिया निर्माण को द्रविड़ भाषाओं के प्रभाव का सूचक माना है। इस सम्बन्ध में मेरा यह अभिमत है कि हिन्दी ने इस परम्परा को परवर्ती अपभ्रंश परम्परा से स्वीकार किया है। संयुक्त काल एवं संयुक्त क्रिया निर्माण की प्रवृत्ति 'उक्त व्यक्ति प्रकरण' एवं 'राउलवेल' की भाषा में दिखायी देती है और इसी का विकास हिन्दी में हुआ है । परवर्ती अपभ्रन्श में इस प्रकार की व्यवस्था भले ही द्रविड़ परिवार की भाषाओं के प्रभाव के कारण आयी हो । सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल१ नाट्यशास्त्र १८।३४-३५ । २ नाट्यशास्त्र १८३६-४०। ३ महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्ट प्राकृत विदुः। -काव्यादर्श १।३४ ।
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