Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
६६८
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
सम्बन्धी जातककथाओं की और बौद्ध साहित्य की चर्चा करते हुए कहा है । अबौद्ध से उनका मतलब है ब्राह्मण और जैन परम्पराओं का साहित्य । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि एक ही रामकथा ने ब्राह्मण, बौद्ध और जैन रूप किस स्थिति में ग्रहण किए होंगे। (४) जैन रामकथा
नामावली तथा परम्परागत कथा-सूत्रों के आधार पर विमलसूरि ने प्राकृत में जो 'पउमचरिय' लिखा, आचार्य रविषेण ने उसका पल्लवित रूपान्तर संस्कृत में 'पद्म पुराण' नाम से प्रस्तुत किया (सप्तम शताब्दी का उत्तरार्ध)। उसका विकसित रूप स्वयम्भुदेव कृत अपभ्रंश में लिखित 'पउमचरिउ' में उपलब्ध है (नवम शताब्दी)। विमलसूरि के पउमचरियं की परम्परा के अतिरिक्त, जैन रामकथा का और एक रूप उपलब्ध है, जो गुणभद्रकृत 'महापुराण' में पाया जाता है (नवम शताब्दी)। फिर भी विमलसूरि की परम्परा की रामकथा जैनधर्म के दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। (अ) विमलसूरि की परम्परा को रामकथा
विद्याधर वंश की राक्षस वंश नामक शाखा में रावण नामक परम प्रतापी राजा लंका का अधिपति था । वह परम तेजस्वी, जिन-भक्त तथा परम प्रतापी था । कुम्भकर्ण और विभीषण उसके बन्धु थे, मेघनाद (इन्द्रजित) उसका पुत्र था। रावण ने तपोबल से एक सहस्र विद्याएं प्राप्त की। फिर उसने कुबेर से लंका का राज्य और पुष्पक विमान जीत लिया। तदनन्तर इन्द्र, वरुण, यम आदि विद्याधर राजाओं को जीतकर वह मरत क्षेत्र के तीन खण्डों का अधिपति हो गया।
_____ इधर अयोध्यापति दशरथ के राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न नामक चार पुत्र थे । ज्योतिषियों ने कहा था सीता के कारण कि दशरथ के पुत्र के हाथों रावण का वध होगा, इसलिए रावण की रक्षा के हेतु विभीषण ने दशरथ और जनक को मार डालने का एक बार यत्न भी किया था, जिसमें वह असफल हो गया था। राम-लक्ष्मण ने बर्बर-शबरों से मिथिला की रक्षा करने में जनक की सहायता की थी। तब राम के प्रताप से प्रसन्न होकर, जनक ने अपनी पुत्री सीता राम को विवाह में प्रदान करने की घोषणा की। परन्तु चन्द्रगति नामक विद्याधर राजा के षड्यन्त्र में उलझने के कारण, जनक ने सीता का स्वयंवर आयोजित किया। उसमें राम-लक्ष्मण ने क्रमशः वज्रावर्त और सागरावर्त धनुषों पर प्रत्यंचा चढ़ाई, तो राम-सीता का ब्याह हुआ। उस अवसर पर शक्तिवर्धन की आठ कन्याओं ने लक्ष्मण का वरण किया ।
कुछ वर्ष पश्चात् दशरथ ने जीवन और जगत की असारता अनुभव करने पर राम को राज्य देने और स्वयं प्रव्रज्या ग्रहण करने की घोषणा की। परन्तु केकया (कैकेयी) ने दशरथ द्वारा दिए हुए वर के आधार पर अपने पुत्र भरत के लिए राज्य मांगा, तो कटुता टालने के लिए राम ने स्वयं वनवास के लिए जाना निश्चय किया और वे सीता और लक्ष्मण को साथ में लेकर अयोध्या से विदा हो गए। इधर दशरथ ने भरत को उसकी इच्छा के विरुद्ध राज्य दिया और स्वयं दीक्षा ली। तदनंतर, भरत ने कैकेयी सहित राम से चित्रकूट पर मिलकर उनसे अयोध्या लौट आने की विनती की, परन्तु सोलह वर्ष के पश्चात् वन से लौटने का अभिवचन देकर, उन्होंने उसे अस्वीकार किया।
चित्रकूट से आगे बढ़कर दशपुर, कुवरनगर, अरुणग्राम, जीवंतनगर, नन्दावर्त, जयन्तपुर, क्षेमांजलि होते हुए वे वंशस्थल नगर पहुँचे । वंशस्थल नगर में मुनियों को उपसर्ग से बचाते हुए उनकी उपस्थिति में राम और सीता ने कुछ व्रत ग्रहण किए । मार्ग में लक्ष्मण ने अनेक प्रसंगों में अपनी वीरता प्रदर्शित की और अनेक कन्याओं का पाणिग्रहण भी किया । घूमते-घामते वे दण्डकारण्य में आकर, गोदावरी के तट पर लता-मण्डप में रहने लगे। वहीं दो मुनियों की सेवा करते हुए उनकी जटायु से भेंट हुई, जिसे सीता ने पुत्र मानकर अपने पास रख लिया। एक दिन लक्ष्मण के हाथों सूर्यहास नामक खड्ग आया और उससे उन्होंने अनजाने चन्द्रनखा (शूर्पणखा) के शम्बु नामक तपस्या-रत पुत्र का वध किया। तब वह बदला लेने के लिए उनके पास आई, फिर भी राम-लक्ष्मण को देखकर उन पर वह आसक्त हो गई। उसके विवाह के प्रस्ताव को लक्ष्मण ने ठुकराया, तो उसने अपने पति एवं देवर-खर-दूषण को उकसाया फलस्वरूप खर सेनासहित राम-लक्ष्मण पर चढ़ दौड़ा, तो दूषण ने रावण को प्रोत्साहित किया। रावण सीता को देखकर काम-विह्वल हो गया, उसने अवलोकनी विद्या की सहायता से लक्ष्मण की मदद करने के निमित्त राम को सीता से दूर भेज दिया और सीता का अपहरण कर, वह लंका की ओर चल दिया। मार्ग में उसने जटायु को आहत किया, एक विद्याधर की विद्याएँ छीन ली और सीतो को लंका में लाकर अशोक वन में रख दिया उसने यह व्रत ले रखा था कि किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध
०
०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org