Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
जैन कवियों की हिन्दी काव्य-कृतियों में वणिक और मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है। जैन कवियों की हिन्दी काव्य-कृतियों में जिन-जिन छन्दों का व्यवहार हुआ है, यहाँ उनका संक्षेप में उल्लेख करेंगे।
पन्द्रहवी शती में रचित काव्यों में केवल मात्रिक छन्दों का व्यवहार परिलक्षित है । सामान्यतः वर्णवृत्तों का प्रयोग नहीं मिलता है । आवलि', चौपई, दोहा', वस्तुबन्ध", सोरठा", नामक मात्रिक छन्दों का सफलतापूर्वक व्यवहार हुआ है।
सोलहवीं शती में रचित हिन्दी जैन काव्य में व्यवहृत छन्दों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । यथा
१. मात्रिक २. वणिक
मात्रिक छन्दो में कुडलिया'२, गीतिका, चौपाई", छप्पय", दोहा", वस्तुबन्ध", नामक छन्दों के दर्शन होते हैं । जहाँ तक वर्णवृत्तों के व्यवहार का प्रश्न है इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा", त्रिवल य, त्रोटक' छन्दों का सफल प्रयोग हुआ है।
सत्रहवीं शती में विरचित हिन्दी जैन काव्यों में मात्रिक और वणिक छन्दों का व्यवहार द्रष्टव्य है। जहां तक मात्रिक छन्दों के प्रयोग का प्रश्न है उनमें अडिल्ल२२, कुण्डलिया२२, करखा, गीतिका२५, गीत२६, चौपाई२०, चौपई२८, छप्पय", दोहा, पद्मावती', पद्धरि२, वस्तुबन्ध, तथा सोरठा अधिक उल्लेखनीय हैं । विवेच्य काल में वर्णवृत्तों का प्रयोग भी बड़ी खूबी से हुआ है इनमें कवित्त, हरिगीतिका" तथा त्रोटक छन्दों के अभिदर्शन सहज में हो जाते हैं। १ जहाँ तक अठारहवीं शती में रचित काव्यों में व्यवहृत मात्रिक तथा वणिक छन्दों का प्रश्न है उनकी संख्या कम नहीं है । अडिल्ल, आर्या, आमीर", कुण्डलिया, करखा, गीत", धत्ता, चौपई, चौपाई", चन्द्रायण, छप्पय", जोगीरासा", दोहा", दुर्मिल५२, नाराच५३, पद्धरि, प्लवंगम", वेसरि, व्योमवती", सोरठा, तथा त्रिभंगी५९, नामक मात्रिक छन्दों का विभिन्न काव्यों में सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है । जहाँ तक वर्णवृत्तों का प्रश्न है जैन कवियों द्वारा द्रुतविलम्बित", भुजंगप्रयात", मनहरण २, कवित्त, सुन्दरी, हरिगीतिका", तथा त्रोटक नामक सात छन्दों के अभिदर्शन होते हैं।
उन्नीसवीं शती में विरचित हिन्दी जैन काव्य-कृतियों में मात्रिक छन्दों के साथ ही साथ वर्णवृत्तों का सफलता पूर्वक प्रयोग हुआ है । मात्रिक छन्दों में अडिल्ल", गीतिका, गीत, गाथा", चौपई", चौपाई २, छप्पय", जोगीरासा, धत्ता, दोहा, पद्धरि", पद अवलिप्त-कपोल.", मोतीदास", गेला", सोरठा", तथा त्रिभंगी२, नामक छन्दों का प्रयोग जैन कवियों द्वारा सफलतापूर्वक हुआ है। इसी प्रकार विभिन्न काव्य रूपों में कवित्त , चामर", नाराच , भुजंगप्रयात", सुगीतिका", सुन्दरी", सखी प्राग्विणी", तथा हरिगीतिका" नामक विविध वर्णवृत्तों का सुन्दर प्रयोग परिलक्षित है।
उपयुक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन कवियों की हिन्दी काव्य-कृतियों में हिन्दी के उन सभी छन्दों का प्रयोग हुआ है जिनके दर्शन हमें हिन्दी काव्य में मिलते है। इन कवियों की विशेषता यह रही है कि इन सभी छन्दों की प्रकृति तथा रूप को भली भाँति समझ कर उचित शब्दावलि के सहयोग से रसानुभूति को शब्दायित किया है। हिन्दी के अनेक कवियों की नाई यहां काव्य पाठ अथवा श्रवण करते समय छन्द आनन्दानुभूति में साधक का काम करते हैं, बाधक का नहीं। काव्य में आचार्यत्व प्रमाणित करने के लिये छन्दों का प्रयोग नहीं किया गया है । स्थायी संदेश को प्राणी मात्र तक पहुँचाने के लिये इन कवियों ने काव्य का सृजन किया । भाषा तथा छन्दों का सहज प्रयोग इनके काव्य में सरसता, सरलता तथा गजब की ध्वन्यात्मकता लयता का संचार करने में सर्वथा सक्षम है। विशेष बात यह है कि इन कवियों द्वारा व्यवहृत छन्द केवल सन्देशवाहक ही नहीं हैं अपितु वे प्रभावक भी प्रमाणित हुए हैं। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल१ हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, प्रथम संस्करण, डा० धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ ८४८ २ वही, पृष्ठ ८४८ ३ छन्द प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद भानु ।
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