Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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पाश्चात्य विद्वानों का जनविद्या को योगदान
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ई० में 'द प्रिवेशन आफ पैशाची एण्ड इट्स रिलेशन टु अदर लेंग्वेज' नामक निबन्ध के रूप में प्रकाशित किया। १९१३ ई० में आपने ढक्की प्राकृत के सम्बन्ध में अध्ययन प्रस्तुत किया 'अपभ्रश एकडिंग टू मार्कण्डेय एण्ड ढक्की प्राकृत ।" इनके अतिरिक्त ग्रियर्सन का प्राकृत के भेद-प्रभेदों के सम्बन्ध में अध्ययन निरन्तर चलता रहा है । 'द प्राकृत विभाषाज" 'एन अरवेकवर्ड क्वेटेड वाय हेमचन्द्र', 'प्राकृत धत्वादेश', 'पैशाची',"आदि निबन्ध प्राकृत भाषा एवं अपभ्रंश के अध्ययन के प्रति ग्रियर्सन की अभिरुचि को प्रगट करते हैं।
बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक तक प्राकृत भाषा का अध्ययन कई पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किया गया है । भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए इस समय भारतीय भाषाओं का अध्ययन करना आवश्यक समझा जाने लगा था। कुछ विद्वानों ने तो प्राकृत के व्याकरण ग्रन्थों का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन भी किया है। हल्टजश्च ने सिंहराज के प्राकृतरूपावतार का सम्पादन किया, जो सन् १९०६ में लन्दन से छपा ।
जैनविद्या का अध्ययन करने वाले विद्वानों में इस समय के प्रसिद्ध विद्वान् डा. हर्मन जैकोबी थे, जिन्होंने प्राकृत वाङमय का विशेष अनुशीलन किया है । जैकोबी ने 'औसगे वेल्ते एत्से लिंगन इन महाराष्ट्री' (महाराष्ट्री (प्राकृत) की चुनी हुई कहानियाँ) नाम से एक पाठ्यपुस्तक तैयार की, जो सन् १८८६ ई० में लिपजिग (जर्मनी) से प्रकाशित हुई। इसके इण्ट्रोडक्शन में उन्होंने महाराष्ट्री प्राकृत के सम्बन्ध में विशद विवेचन किया है तथा वैदिक भाषाओं से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं तक के विकास को प्रस्तुत किया है। जैकोबी ने अपने द्वारा सम्पादित प्राकृत ग्रन्थों की भूमिकाओं के अतिरिक्त प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में स्वतन्त्र निबन्ध भी लिखे हैं । सन् १९१२-१३ में उन्होंने 'प्राकृत देर जेस, उवर आइने नीव सन्धिरीगल इन पाली डण्ड इन, डण्ड उबर दी वेटोमिंग इण्डिश्चिन स्प्राखन' नामक निबन्ध लिखा,२ जो, पालि-प्राकृत भाषाओं पर प्रकाश डालता है। जैनकथा साहित्य के आधार पर प्राकृत का सर्वप्रथम अध्ययन जैकोबी ने ही किया है। इस सम्बन्ध में उनका 'उवर डैस प्राकृत इन डेर इत्सेलंग लिटरेचर डेर जैन' नामक निबन्ध महत्वपूर्ण है।
इसी समय पीटर्सन का 'वैदिक संस्कृत एण्ड प्राकृत'१३, एफ० इ० पजिटर का 'चूलिका पैशाचिक प्राकृत, आर० श्मिदित का 'एलीमेण्टर बुक डेर शौरसैनी', बाल्टर शुब्रिग का 'प्राकृत डिचटुंग डण्ड प्राकृत मेनीक'५, एल. डी० बर्नेट का 'एप्ल्यूरल फार्म इन द प्राकृत आफ खोतान" आदि गवेषणात्मक कार्य प्राकृत भाषाओं के अध्ययन के सम्बन्ध में प्रकाश में आये।
इस शताब्दी में चतुर्थ एवं पंचम दशक में पाश्चात्य विद्वानों ने प्राकृत भाषा के क्षेत्र में जो कार्य किया उसमें ल्युजिआ नित्ति का अध्ययन विशेष महत्व का है। उन्होंने न केवल प्राकृत के विभिन्न वैयाकरणों के मतों का अध्ययन किया है, अपितु अभी तक प्राकृत भाषा पर हुए पिशेल आदि के ग्रन्थों की सम्यग् समीक्षा भी की है। उनका प्रसिद्ध प्रन्थ 'लेस मेरियन्स प्राकृत्स' (प्राकृत के व्याकरणकार) है, जो पेरिस से सन् १९३८ ई० में प्रकाशित हुआ है। नित्ति डोलची का दूसरा ग्रन्थ 'डू प्राकृतकल्पतरु डेस रामशर्मन विग्लियोथिक डिले आल हेट्स इटूयड्स' है। इन्होंने प्राकृतअपभ्रंश भाषा से सम्बन्धित समस्याओं पर शोध-निबन्ध भी लिखे हैं-'प्राकृत ग्रेमेरिअन्स डिस एट डायलेक्ट्स १८ आदि।
इसी समय टी० बरो का 'द लेंग्वेज आफ द खरोष्ट्री डोकुमेंट्स फाम चाइनीज तुर्किस्तान', नामक निबन्ध १९३७ में कैम्ब्रिज से प्रकाशित हुआ । प्राकृत मुहावरों के सम्बन्ध में विल्तोरे पिसानी ने 'एन अननोटिस्ह प्राकृत इडियम' नामक लेख प्रकाशित किया । मागधी एवं अर्धमागधी के स्वरूप का विवेचन करने वाला डब्ल्यू. ई.क्लर्क का लेख 'मागधी एण्ड अर्धमागधी', सन् १९४४ ई० में प्रकाश में आया । १९४८ ई. में नार्मन ब्राउन ने जैन महाराष्ट्री प्राकृत
और उसके साहित्य का परिचय देने वाला 'जैन महाराष्ट्री प्राकृत सम केनिकल मेटेरियल इन' नाम से एक लेख लिखा।
इस शताब्दी के छठे दशक में प्राकृत के साहित्यिक ग्रन्थों पर भी पाश्चात्य विद्वानों ने दृष्टिपात किया । कुवलयमालाकथा की भाषा ने विद्वानों को अधिक आकृष्ट किया। सन् १९५० में अल्फड मास्तर ने 'ग्लीनिंग्स फ्राम द कुवलयमाला' नामक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने ग्रन्थ की १८ देशी भाषाओं पर प्रकाश डाला । दूसरे विद्वान् जे० क्यूपर ने 'द पैशाची फागमेन्ट आफ द कुवलयमाला' में ग्रन्थ की भाषा की व्याकरण-मूलक व्याख्या प्रस्तुत की।२२ प्राकृत भाषा के अध्ययन के इस प्रसार के कारण विश्व की अन्य भाषाओं के साथ भी उसकी तुलना की जाने लगी। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री ज्यूल्स ब्लाख ने अपने 'प्राकृत Cia लैटिन guiden लेंग्वेज'२3 नामक लेख में प्राकृत और लैटिन भाषा के सम्बन्धों पर विचार किया है।
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