Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान
५२७.
पतंजलि ने योग के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार बताये हैं । १२ असंप्रज्ञात समाधि को वेदान्तियों ने निर्विकल्प समाधि कहा है । पतंजलि ने इसको निर्बीज समाधि भी कहा है क्योंकि उससे नये संस्कार प्रस्फुटित नहीं होते । उससे नीचे की अवस्था संप्रज्ञात समाधि है । इसमें यद्यपि प्रकृति से अपने को भिन्न समझने का ज्ञान साधक के मन में उत्पन्न होता है तो भी यह अवस्था पूर्ण मोक्ष या कैवल्य से नीचे ही है क्योंकि इसमें द्वैत बुद्धि दूर नहीं होती।
जैन दृष्टि से (१) अध्यात्म (२) भावना (३) ध्यान (४) समता और (५) वृत्ति संक्षय ये योग के पांच भेद हैं ।२५ जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, जिसके प्राप्त होते ही शीघ्र मोक्ष हो जाता है वही वस्तुतः योग है, जिसे पतंजलि ने असंप्रज्ञात कहा है और जैनाचार्यों ने वृत्तिसंक्षय कहा है। असंप्रज्ञात और वृत्तिसंक्षय आत्मा को सर्वप्रथम प्राप्त नहीं होता किन्तु उसके पूर्व उसे विकास के अनेक कार्य करने होते हैं । और उत्तरोत्तर विकास कर वास्तविक योग-असंप्रज्ञात या वृत्तिसंक्षय तक पहुंचता है। उसके पूर्व की अवस्थाएं संप्रज्ञात और जैनदृष्टि से अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता है जो मिथ्यात्व के नष्ट होने पर प्राप्त होती हैं।
आचार्य पतंजलि ने योग के अभ्यास और वैराग्य ये दो उपाय बताये हैं। वैराग्य के पर और अपर ये दो प्रकार हैं । १२६ उपाध्याय यशोविजयजी ने अपर वैराग्य को अतात्त्विक धर्म संन्यास और पर-वैराग्य को तात्त्विक धर्मसंन्यास योग कहा है । १२०
संप्रज्ञात योग में जैनदृष्टि से अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता होने से हम उसकी तुलना चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के साधकों के साथ कर सकते हैं और असंप्रज्ञात में वृत्ति संक्षय होता है अतः उसकी तुलना तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान से की जा सकती है।
उपर्युक्त पंक्तियों में बहुत ही संक्षेप में हमने गुणस्थानों के सम्बन्ध में चिन्तन किया है । विस्तार मय से उनके भेद-प्रभेद और अन्य दर्शनों के साथ उनके प्रत्येक पहलुओं पर विचार न कर संक्षेप में ही एक झांकी प्रस्तुत की है, जिससे प्रबुद्ध पाठक गुणस्थानों के महत्त्व को समझ सकते हैं । गुणस्थान आध्यात्मिक विकास के सोपान हैं । आत्मा मिथ्यात्व से किस प्रकार निकलकर अपनी प्रगति कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी अवस्था को प्राप्त करता है उसका वैज्ञानिक विश्लेषण गुणस्थान में है । आचार्य हरिभद्र ने मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा इन आठ योगदृष्टियों के साथ गुणस्थानों की तुलना की है । इससे स्पष्ट है कि गुणस्थानों का आध्यात्मिक दृष्टि से कितना महत्त्व है । सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल । १ समवायाङ्ग १४वां समवाय २ गुणठ्ठाणा य जीवस्स-समयसार, गा. ५५ ३ प्राकृत पद्य संग्रह, ११३-५ ४ नमिय जिणं जिअमग्गण, गुणठाणुवओग-लोग लेसाओ । बंधप्प बहुभाने संखिज्जाई किमवि वुच्छं"।
-कर्म-प्रन्थ, ४१ ५ जेहिं तु लक्खिज्जते उदयादिसु सम्भवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहि ॥
-गोम्मटसार, गाथा ७ ६ चउद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धा यं णादव्वा ।
-गोम्मटसार, गाथा १० ७ जीवसमास इति किम्, ? जीवाः सम्यगासतेऽस्थिन्निति जीव समासः ।
क्वा सते ? गुणेषु । के गुणाः औदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिका इति गुणाः । अस्य गमनिका, कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः औदयिकः तेषामुपशमादीपशमिकः क्षयात्क्षायिकः तत्क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोपशमिकः । कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशममन्तरेणोत्पन्नः पारिणामिकः । गुणसहचरितत्त्वादास्मापि गुण संज्ञा प्रतिलभते।
-षट्खण्डागम, धवलावृत्ति प्रथम खण्ड, २-१६-६१ ८ संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोह जोगमवा
-गोम्मटसार, गाथा ३
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