Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान
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हैं और वह प्राणियों के बोधि बीज को परिपुष्ट करता है। इसमें समाधि की विशुद्धता एवं विश्लेषण तथा अनुभव करने वाली बुद्धि जिसे प्रतिसंविन्मति कहा जाता है, उसकी प्रधानता होती है और अन्य प्राणियों के मनोगत भावों को जानने की क्षमता भी उत्पन्न होती है । इसकी भी तुलना सयोगी केवली गुणस्थान से की जा सकती है।
(१०) धर्ममेद्या-जैसे अनन्त आकाश मेघ से व्याप्त होता है वैसे ही प्रस्तुत भूमि में समाधि धर्माकाश को व्याप्त कर लेती है। इसमें बोधिसत्व का दिव्य और भव्य शरीर रत्नकमल पर अवस्थित दृग्गोचर होता है। इसकी तुलना समवसरण में विराजित तीर्थंकर भगवान से कर सकते हैं।
ये दस भूमियां महायान सम्प्रदाय के दशमभूमि शास्त्र को दृष्टि से हैं। हीनयान से महायान की ओर संक्रमण काल में लिखे हुए महावस्तु में अन्य नाम भी उपलब्ध होते हैं, वे इस प्रकार हैं-(१) दुरारोहा, (२) बद्धमान, (३) पुष्पमण्डिता, (४) रुचिरा, (५) चित्त विस्तार, (६) रूपमती, (७) दुर्जया, (८) जन्मनिदेश, (९) यौवराज और (१०) अभिषेक । महायान का दस भूमियों का सिद्धान्त इसी मूलभूत धारणा पर अवलम्बित है। असंग के महायान सूत्रालंकार और लंकावतार सूत्र में इन भूमिकाओं की संख्या ११ हो जाती है। महायान सूत्रालंकार में प्रथम भूमि को "अधिमुक्तचर्या" कहा गया है और उसके पश्चात् प्रमुदिता भूमि की चर्चा की गयी है। अभिमुक्तचर्या भूमि में साधक को पुद्गल नैरात्म्य और धर्म नैरात्म्य का यथार्थ ज्ञान होता है और यह विशुद्धि की अवस्था है। इसकी तुलना चतुर्थ गुणस्थान से की जा सकती है।
जैन गुणस्थान और आजीवक भूमिकाएँ आजीवक सम्प्रदाय का अधिनेता मंखलीपुत्र गोशालक था। भगवती उपासकदशांग, आवश्यक नियुक्ति २ आवश्यकचूणि, आवश्यक हारिभद्रियावृत्ति, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, महावीरचरिर्य,०६ त्रिषष्टिशलाका पुरुषत्रय चरित्र, आदि जैन साहित्य में उसका विस्तार से वर्णन है। वह भगवान महावीर का प्रतिद्वन्द्वी था। सम्राट अशोक के शिलालेखों से भी आजीबक भिक्षुओं का सम्राट् द्वारा गुफा दिये जाने का उल्लेख है। पर यह सम्प्रदाय कब तक चलता रहा यह कहना कठिन है । तथापि शिलालेखों आदि से ई० पू० दूसरी शताब्दी तक उसका अस्तित्व प्रमाणित होता है । किन्तु उसका कोई भी स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मिलता।१०।
मज्झिमनिकाय में आजीवक सम्प्रदाय के आठ सोपान बताये गये हैं (१) मन्द (२) खिड्डा (३) पदवीमंसा (४) उज्जुगत (५) सेख (६) समण (७) जिन और (८) पन्न । इन आठों का आजीवक सम्प्रदाय के अनुसार आध्यात्मिक दृष्टि से क्या अर्थ था यह मूल ग्रन्थों के अभाव में कहा नहीं जा सकता । किन्तु आचार्य बुद्धघोष जिनका समय ५-६वीं शती माना जाता है, उन्होंने सुमंगल विलासिनी टीका में आठ सोपानों का वर्णन इस प्रकार किया है
(१) मन्द-जन्म दिन से लेकर सात दिन तक गर्म निष्क्रमणजन्य दु:ख के कारण प्राणी मन्द (मोमूह) स्थिति में रहता है।
(२) खिड्डा-जो बालक दुर्गति से आकर जन्म होता है वह बालक पुनः पुनः रुदन व विलाप करता है और जो बालक सुगति से आता है वह बालक सुगति का स्मरण कर हास्य करता है। यह खिड्डा (क्रीडा) भूमिका है।
(३) पदवीमंसा-माता-पिता के हाथ व पैरों को पकड़कर या पलंग अथवा काष्ठ के पाट को पकड़कर बालक पृथ्वी पर पैर रखता है । यह पदवीमंसा भूमिका है।
(४) उज्जुगत-पैरों से स्वतन्त्र रूप से जो चलने का सामर्थ्य आता है वह उज्जुगत (ऋजुगत) भूमिका है। (५) सेख-शिल्पकला के अध्ययन का समय वह शैक्ष भूमिका है। (६) समण-घर से निकल कर संन्यास ग्रहण करना, यह समण (श्रमण) भूमिका है। (७) जिन-आचार्य की उपासना कर ज्ञान प्राप्त करने का समय जिन भूमिका है।
(८) पन्न-प्राज्ञ बना हुआ भिक्षु (जिन) जब कुछ भी नहीं बोलता है ऐसे निलोभ श्रमण की स्थिति यह पन्न (प्रज्ञ) भूमिका है।
प्रो० होर्नले १९ और पं० सुखलाल जी१२ आदि का मन्तव्य है कि बुद्धघोष की प्रस्तुत व्याख्या युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इस व्याख्या में बाल्यकाल से लेकर युवावस्था तक का व्यावहारिक वर्णन आया है जिसका मेल आध्यात्मिक विकास के साथ नहीं बैठता । सम्भव है इन भूमिकाओं का सम्बन्ध अज्ञान और ज्ञान की भूमिकाओं के साथ रहा हो । इन आठ भूमिकाओं में से प्रथम तीन भूमिकाएँ अविकास की सूचक हैं और पीछे की पांच भूमिकाएँ विकास का सूचन करने वाली हैं । उसके पश्चात् मोक्ष होना चाहिये।
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