Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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आठवें से ११वें गुणस्थानों में आयु पूर्ण करने वाला साधक अधिक से अधिक तीसरे जन्म में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । बौद्ध दृष्टि से इस भूमि में एक ही बार संसार में जन्म ग्रहण करता है।
३. अनागामी भूमि-पूर्व की दो भूमियों को पार कर साधक इस भूमि में आता है । वह रूपराग, अरूप राग, मान, औद्धत्य और अविद्या को नष्ट करने का प्रयास करता है। जब वह पांचों संयोजनों को नष्ट कर देता है तो वह अर्हत् अवस्था को प्राप्त कर लेता है । जो इन संयोजनों को नष्ट करने के पूर्व ही साधना काल में ही मृत्यु को वरण कर लेता है वह ब्रह्मलोक में जन्म लेकर शेष पाँच संयोजनों के नष्ट होने पर निर्वाण को प्राप्त करता है। उसे पुन: प्रस्तुत लोक में जन्म ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं होती । अनागामी भूमि की तुलना आठवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की जा सकती है।
४. अहंत भूमि-इसमें सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा, शीलव्रत परामर्श, कामराग, प्रतिध, रूपराग, अरूपराग, मान, औद्धत्य और अविद्या इन दस बन्धनों को नष्ट कर साधक अर्हत् अवस्था को प्राप्त कर लेता है । सम्पूर्ण भाव नष्ट हो जाने से वह कृतकार्य हो जाता है, उसके लिए कुछ भी करणीय अवशेष नहीं रहता, तथापि वह संघ की सेवा हेतु क्रियाएँ करता है।"" इसकी तुलना सयोगी केवली गुणस्थान से की जा सकती है।
महायान की दृष्टि से अध्यात्मविकास की जो दस भूमिकाएँ हैं, वे इस प्रकार हैं
(१) प्रमुदिता-यह शील विशुद्धि सम्बन्धी प्रयास करने की अवस्था है। इसमें बोधिसत्व (साधक) लोक मंगल की साधनभूत बोधि को संप्राप्त कर प्रमुदित होता है। इस अवस्था को बोधि प्रस्थानचित्त की अवस्था कहा जाता है। बोधि प्रणिधि चित्त में मार्ग का ज्ञान होता है तो बोधिप्रस्थान चित्त में मार्ग में गमन की क्रिया का। साधक इस भूमि में शक्ति पारमिता का अभ्यास करता है और पूर्ण शीलविशुद्धि की ओर प्रस्थित होता है । प्रस्तुत भूमिका की तुलना पांचवें और छठे गुणस्थानों से की जा सकती है।
(२) विमला-इसमें अनैतिक आचरण से मुक्त होकर साधक आचरण की शुद्धि को प्राप्त करता है और शान्त पारमिता का अभ्यास करता है । यह अधिचित्त शिक्षा है । इस भूमिका का लक्षण ज्ञान प्राप्त है और इसमें अच्युत समाधि का लाभ होता है। इसकी तुलना अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से की जा सकती है ।
(३) प्रभाकरी-इसमें साधक बुद्ध का ज्ञान रूपी प्रकाश (प्रभा) संसार में वितरित करता है। इसकी भी तुलना अप्रमत्त संयतगुणस्थान से की जा सकती है।
(४) अचिष्मती-इसमें प्रज्ञा अचि (लपट) का काम करती है और क्लेशावरण तथा ज्ञयावरण का दाह करती है। इसमें साधक वीर्य पारमिता का अभ्यास करता है। इसकी तुलना अपूर्वकरण गुणस्थान से की जा सकती है।
(५) सुदुर्जया- इसमें धार्मिक भावों की परिपुष्टि तथा स्वचित्त की रक्षा के साथ दुःख पर विजय पायी जाती है। यह कार्य अत्यन्त दुष्कर होने के कारण इस भूमि को 'दुर्जय' कहा गया है। बोधिसत्व (साधक) इस भूमि में ध्यान पारमिता का अभ्यास करता है । इसकी तुलना आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान की अवस्था से कर सकते हैं।
(६) अभिमुखी-साधक प्रज्ञापारमिता के आश्रय से संसार और निर्वाण दोनों के प्रति अभिमुख होता है। उसमें यथार्थ प्रज्ञा का उदय होता है अतः उसमें संसार और निर्वाण में कोई अन्तर नहीं होता है। और अब संसार उसके लिए बन्धक नहीं रहता। इसमें साधक के निर्वाण की दिशा में अभिमुख होने के कारण इस भूमि को अभिमुखी कहा है। चौथी-पांचवीं भूमि में प्रज्ञा की साधना होती है और इसमें प्रज्ञा पारमिता की साधना पूर्ण होती है । इस भूमि की तुलना सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान की पूर्वावस्था से की जा सकती है ।
(७) दूरंगमा-इस भूमि में बोधिसत्व (साधक) शाश्वतवाद और उच्छेदवाद से दूर हो जाता है और बोधिसत्व की साधना पूर्णकर निर्वाण के सर्वथा योग्य हो जाता है । इस भूमि में बोधिसत्व अन्य प्राणियों को निर्वाण मार्ग में लगाता है । स्वयं सभी पारमिताओं का पालन करता है और विशेष रूप से कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है। इसकी तुलना क्षीणमोह गुणस्थान से की जा सकती है।
(८) अचला-प्रस्तुत भूमि में संकल्प शून्यता एवं विषय से मुक्त होकर अनिमित्त विहारी समाधि की उपलब्धि होती है। इसलिए इसका नाम 'अचला है। विषय न होने से चित्त में संकल्प-विकल्प नहीं होते और संकल्प शून्य होने के कारण चित्त अविचल होता है जिससे तत्त्व का साक्षात्कार होता है। इसकी तुलना सयोगी केवली गुणस्थान से की जा सकती है।
(६) साधुमती-इस भूमि में बोधिसत्व के हृदय में सम्पूर्ण जीवों के प्रति शुभकामनाएं अगड़ाइयाँ लेने लगती
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