Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
है । तथापि यह प्रश्न उठता है कि बन्धन से कैसे बचा जाये ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जनदर्शन कहता है कि बंधन का कारण इन्द्रिय-व्यापार नहीं वरन् उनके मूल में निहित राग और द्वेष की वृत्तियाँ ही हैं । जैसा कि उत्तराध्ययन-सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि इन्द्रियों और मन के विषय, रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, ये विषय वीतरागियों के लिए बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते । १२ कामभोग किसी को भी सम्मोहित नहीं कर सकते, न किसी में विकार ही पैदा कर सकते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है।
गीता में भी इसी प्रकार निर्देश दिया गया है कि साधक इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् सभी इन्द्रियों के भोगों में स्थित, जो राग और द्वेष हैं, उनके वश में नहीं होवे क्योंकि ये दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं। जो मूढबुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों को हठात् रोककर इन्द्रियों के भोगों का मन से चिन्तन करता रहता है, उस पुरुष के राग-द्वेष निवृत्त नहीं होने के कारण वह मिथ्याचारी या दम्भी कहा जाता है ।" इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु राग निवृत्त नहीं होता। जबकि निर्वाण लाम के लिए राग का निवृत्त होना परमावश्यक है।
वास्तविकता यह है कि निरोध इन्द्रिय-व्यापारों का नहीं वरन् उनमें निहित राग-द्वेष का करना होता है क्योंकि बन्धन का वास्तविक कारण इन्द्रिय-व्यापार नहीं, वरन् राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ हैं। जैन दार्शनिक कहते हैं इन्द्रियों के शब्दादि मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए ही राग-द्वेष का कारण बनते हैं वीतरागी (अनासक्त) के लिए वे राग-द्वेष का कारण नहीं होते। गीता कहती है कि राग-द्वेष से विमुक्त व्यक्ति इन्द्रिय-व्यापारों को करता हुआ भी पवित्रता को ही प्राप्त होता है । इस प्रकार जनदर्शन और गीता इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध की बात नहीं कहते, वरन् इन्द्रियों के विषयों के प्रति राग-द्वेष की वृत्तियों के निरोध की धारणा को प्रस्थापित करते हैं ।
___इसी प्रकार मनोनिरोध के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्त धारणाएं मान ली गई हैं, यहाँ हम उसका भी यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। इच्छानिरोष या मनोनिग्रह
भारतीय आचार-दर्शन में इच्छा-निरोध एवं वासनाओं के निग्रह का स्वर काफी मुखरित हुआ है। आचारदर्शन के अधिकांश विधि-निषेध इच्छाओं के दमन से सम्बन्धित हैं; क्योंकि इच्छाएं तृप्ति चाहती हैं, और तृप्ति बाह्य साधनों पर निर्भर रहती है । यदि बाह्य परिस्थिति प्रतिकूल हो तो अतृप्त इच्छा मन में क्षोभ उत्पन्न करती है और इस प्रकार चित्त शान्ति या आध्यात्मिक समत्व का भंग हो जाता है । अत: यह माना गया कि समत्व के नैतिक आदर्श की उपलब्धि के लिए इच्छाओं का दमन कर दिया जाए। मन ही इच्छाओं एवं संकल्पों का उत्पादक है अतः इच्छानिरोध का अर्थ मनोनिग्रह ही मान लिया गया। पतंजलि ने तो यहाँ तक कह दिया कि चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है । यह माना जाने लगा कि मन स्वयं ही समग्र क्लेशों का धाम है । उसमें जो भी वृत्तियां उठती हैं वे सभी बन्धन रूप हैं अतः उन मनोव्यापारों का सर्वथा अवरोध कर देना यही निर्विकल्प समाधि है, यही नैतिक जीवन का आदर्श है। जैन, बौद्ध
और गीता के आचार-दर्शनों में इच्छानिरोध और मनोनिग्रह के प्रत्यय को स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है यह मन उस दुष्ट और मंयकर अश्व के समान है जो चारों दिशाओं में भागता है। अतः साधक संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होने वाले इस मन का निग्रह करे।" गीता में भी कहा गया है-"यह मन अत्यन्त ही चंचल, विक्षोभ उत्पन्न करने वाला और बड़ा बलवान है, इसका निरोध करना वायु के रोकने के समान अत्यन्त ही दुष्कर है।"" फिर भी कृष्ण कहते हैं कि "निस्संदेह यह मन कठिनता से निग्रह होता है फिर भी अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इस मन (आसक्ति) का निग्रहण सम्भव है।"२ और इसलिए हे अर्जुन ! तू मन की वृत्तियों का निरोध कर इस मन को मेरे में लगा।" बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में भी कहा गया है कि "यह चित्त अत्यन्त ही चंचल है, इस पर अधिकार कर कुमार्ग से इसकी रक्षा करना अत्यन्त कठिन है, इसकी वृत्तियों का कठिनता से ही निवारण किया जा सकता है अत: बुद्धिमान मनुष्य इसे ऐसे ही सीधा करे जैसे इषुकार (बाण बनाने वाला) बाण को सीधा करता है।" यह चित्त कठिनता से निग्रहित होता है, अत्यन्त शीघ्रगामी और यथेच्छ विचरण करने वाला है इसलिए इसका दमन करना ही श्रेयस्कर है, दमित किया हुआ चित्त ही सुखवर्धक होता है।४ मध्यकालीन जैन आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं 'आँधी की तरह चंचल मन मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक एवं तप करने वाले मनुष्य को भी कहीं का कहीं ले जाकर पटक देता है अत: जो मनुष्य मुक्ति चाहते हों उन्हें समग्र विश्व में भटकने वाले लम्पट मन का निरोध करना चाहिए।"५
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