Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान ५१३
५. देशविरति
देशविरतसम्यग्दृष्टि नामक पांचवें गुणस्थान में व्यक्ति की आत्मशक्ति और विकसित होती है । वह पूर्णरूप से तो सम्यक्चारित्र की आराधना नहीं कर पाता किन्तु आंशिक रूप से उसका पालन अवश्य करता है। इस गुणस्थान में जो व्यक्ति हैं उन्हें जैन आचार शास्त्रों में उपासक और श्रावक कहा है ।
जैनागम गृहस्थ के लिए बारह व्रतों का विधान करते हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदार सन्तोष और इच्छा परिमाण ये पाँच अणुव्रत हैं । अणुव्रत का अर्थ है आंशिक चारित्र की साधना |
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दिविरति भोगोपभोगरत और अनर्थदण्डविरति ये तीनों गुणव्रत हैं। ये तीनों यस अनुचतों के पोषक हैं, एतदर्थ इन्हें गुणव्रत कहा गया है ।
सामायिक, देशावका शिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। ये चारों व्रत अभ्यासात्मक या बार-बार करने योग्य हैं, एतदर्थ इन्हें शिक्षाव्रत कहा गया है। इन व्रतों का अधिकारी देशव्रती श्रावक कहलाता है ।
देशविरति को आगमों में विरताविरत भी कहा गया है। षट्खण्डागम में इसे संयतासंयत लिखा है । २ विरताविरत जीव त्रस जीवों की हिंसा से विरत हो जाता है किन्तु स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं
हो पाता । ५३
इस गुणस्थान में एकादश प्रतिमाओं का भी आराधन किया जाता है । ५४ प्रतिमा का अर्थ प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष है ।
इस गुणस्थान की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ न्यून करोड़ पूर्व वर्ष की है ।
पाँच गुणस्थान में ६७ कर्मप्रकृतियाँ पती हैं
पाँचवें
उनमें से निम्न दस कर्म प्रकृतियाँ इस गुणस्थान में नहीं बंधती हैं । वे इस प्रकार हैं
चतुर्थ गुणस्थान में जो ७७ कर्म प्रकृतियां बंधती हैं,
(१) वचनाच संहनन (२) मनुष्य त्रिक (मनुष्यजाति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु) (२) अस्था ख्यानी कषायचतुष्क ( ४ ) औदारिक शरीर (५) और औदारिक अंगोपांग १५
छठी भूमिका से लेकर अगली सारी भूमिकाएँ मुनि जीवन की है।
६. प्रमत्तसंयत
छठे गुणस्थान में साधक कुछ और आगे बढ़ता है। वह देशविरत से सर्वविरत हो जाता है। वह पूर्णरूप से सम्यक्चारित्र की आराधना प्रारम्भ कर देता है। अतः उसका व्रत अणुव्रत नहीं किन्तु महाव्रत है। उसका हिंसा का त्याग अपूर्ण नहीं, पूर्ण होता है। अणु नहीं महान् होता है। इतना होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इस अवस्था में रहे हुए साधक का चारित्र पूर्ण विशुद्ध होता ही है। यहाँ पर प्रमाद की सत्ता रहती है। अतएव इस गुणस्थान का नाम प्रमत्तसंयत रखा गया है। गोम्मटसार में प्रमाद के पन्द्रह भेद बताये हैं ।
(१) चार विकथा - स्त्रीकथा, भक्तकथा, चोरकथा, राजकथा, (५) चार कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ, (६) पाँच इन्द्रियाँ - स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, (१४) निद्रा और (१५) प्रणय - स्नेह ।
साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस भूमिका से नीचे भी गिर सकता है और ऊपर भी चढ़
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सकता है ।
छठे गुणस्थान में तिरेसठ (६३) कर्मप्रकृतियों का बन्य होता है। पांचवें गुणस्थान में समसठ (६७) कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, उनमें से प्रत्याख्यानी चतुष्क का इस गुणस्थान में बन्ध नहीं होता ।"
प्रमत्तसंयत गुणस्थान की स्थिति कर्मस्तव, योगशास्त्र '६, गुणस्थान क्रमारोह" सर्वार्थसिद्धि " आदि ग्रन्थों में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त लिखी है । अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् प्रमत्तसंयती एक बाद अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पहुँचता है और वहाँ भी अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहकर पुनः प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आ जाता है । यह चढ़ाव और उतार देशोनकोटिपूर्व तक होता रहता है, अतएव छठे और सातवें दोनों गुणस्थान की स्थिति मिलकर देशोन करोड़ पूर्व की है।
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