Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
किया है। आगम सहित्य में अट्ठाइस लब्धियों का वर्णन है। उनमें एक तेजस्-लब्धि है। तेजो-लेश्या अजीव है। तेजो-लेश्या के पुद्गलों में जिस प्रकार लाल प्रमा और कान्ति होती है वैसी ही कान्ति तेजस्-लब्धि के प्रयोग करने वाले पुद्गलों में भी होती है । इसी दृष्टि से तेजस्-लब्धि के साथ लेश्या शब्द भी प्रयुक्त हुआ हो।
गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! बाण के जीवों को मार्ग में जाते समय कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? उसके हर एक अवयव की कितनी क्रियाएँ होती हैं ? उत्तर में भगवान ने कहा-गौतम, चारपाँच क्रियाएँ होती हैं । क्योंकि मार्ग में जाते समय मार्गवर्ती जीवों को वह सन्त्रस्त करता है । बाण के प्रहार से वे जीव अत्यन्त सिकुड़ जाते हैं । प्रस्तुत सन्तापकारक स्थिति में जीव को चार क्रियाएँ लगती हैं, यदि प्राणातिपात हो जाय तो पांच क्रियाएँ लगती हैं। यही स्थिति तेजो-लेश्या की भी है। उसमें भी चार-पांच क्रियाएँ लगती हैं । अष्टस्पर्शी पुद्गल-द्रव्य मार्गवर्ती जीवों को उद्वेग न करे, यह स्वाभाविक है । भगवती में स्कन्दक मुनि का 'अवहिलेश्य' यह विशेषण है जिसका अर्थ है उनकी लेश्या यानि मनोवृत्ति संयम से बाहर नहीं है। आचारांग के प्रथम श्रु तस्कन्ध में श्रद्धा का उत्कर्ष प्रतिपादित करते हुए मनोयोग के अर्थ में लेश्या का प्रयोग हुआ है। शिष्य गुरु की दृष्टि का अनुगमन करे । उनकी लेश्या में विचरे अर्थात् उनके विचारों का अनुगमन करे। प्रज्ञापना, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि आगम साहित्य में लेश्या शब्द का प्रयोग वर्ण, प्रभा और रंग के अर्थ में भी हुआ है। प्रज्ञापना में देवों के दिव्य प्रभाव का वर्णन करते हुए द्युति, प्रभा, ज्योति, छाया, अचि और लेश्या शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार नारकीय जीवों के अशुभ कर्मविपाकों के सम्बन्ध में गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की—क्या सभी नारकीय जीव एक सदृश लेश्या और एक सदृश वर्ण वाले होते हैं या असमान ? समाधान करते हुए महावीर ने कहा-सभी जीव समान लेश्या
और समान वर्ण वाले नहीं होते । जो जीव पहले नरक में उत्पन्न हुए हैं वे पश्चात् उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा विशुद्ध वर्ण वाले और लेश्या वाले होते हैं। इसका कारण नारकीय जीवों के अप्रशस्त वर्ण नामकर्म की प्रकृति, तीव्र अनुभाग वाली होती है जिसका विपाक भव-सापेक्ष्य है। जो जीव पहले उत्पन्न हुए हैं उन्होंने बहुत सारे विपाक को पा लिया है, स्वल्प अवशेष है । जो बाद में उत्पन्न हुए हैं उन्हें अधिक भोगना है । एतदर्थ पूर्वोत्पन्न विशुद्ध हैं और पश्चादुत्पन्न अविशुद्ध हैं । इसी तरह जिन्होंने अप्रशस्त लेश्या-द्रव्यों को अधिक मात्रा में भोगा है वे विशुद्ध हैं और जिनके अधिक शेष हैं वे अविशुद्ध लेश्या वाले हैं।"
हम पूर्व लिख चुके हैं कि लेश्या के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । द्रव्यलेश्या पुद्गल विशेषात्मक है। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में मुख्य रूप से तीन मान्यताएं प्राप्त हैं-कर्मवर्गणानिष्पन्न, कर्मनिस्यन्द और योगपरिणाम । ।
उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार शांतिसूरि का अभिमत है कि द्रव्य-लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है । यह द्रव्य-लेश्या कर्मरूप है तथापि वह आठ कर्मों से पृथक् है, जैसे कि कार्मण शरीर । यदि लेश्या को कर्मवर्गणा निष्पन्न न माना जाय तो वह कर्म-स्थिति-विधायक नहीं बन सकती। कर्म-लेश्या का सम्बन्ध नामकर्म के साथ है। उसका सम्बन्ध शरीर-रचना सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीर नामकर्म है । शरीर नामकर्म के पुद्गलों का एक समूह कर्म-लेश्या है ।१५।।
दूसरी मान्यता की दृष्टि से लेश्या-द्रव्य कर्मनिस्यन्द रूप है। यहां पर निस्यन्द रूप का तात्पर्य बहते हुए कर्म-प्रवाह से है । चौदहवें गुणस्थान में कर्म की सत्ता है, प्रवाह है। किन्तु वहाँ पर लेश्या नहीं है । वहाँ पर नये कर्मों का आगमन नहीं होता।
कषाय और योग ये कर्म बन्धन के दो मुख्य कारण हैं । कषाय होने पर लेश्या में चारों प्रकार के बन्ध होते हैं । प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का सम्बन्ध योग से है और स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का सम्बन्ध कषाय से है । जब कषायजन्य बन्ध होता है तब लेश्याएँ कर्मस्थिति वाली होती हैं। केवल योग में स्थिति और अनुभाग नहीं होता, जैसे तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्तों के ईर्यापथिक क्रिया होती है, किन्तु स्थिति, काल और अनुभाग नहीं होता । जो दो समय का काल बताया गया है वह काल वस्तुतः ग्रहण करने का और उत्सर्ग का काल है । वह स्थिति और अनुभाग का काल नहीं है।
तृतीय अभिमतानुसार लेश्या-द्रव्य योगवर्गणा के अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य है। बिना योग के लेश्या नहीं होती। लेश्या और योग में परस्पर अन्वय और व्यतिरेक सम्बन्ध है। लेश्या के योग निमित्त में दो विकल्प समुत्पन्न होते हैं। क्या लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्यरूप मानना चाहिए ? अथवा योगनिमित्त कर्मद्रव्य रूप ? यदि वह लेश्या द्रव्यकर्म रूप है तो घातीकर्म द्रव्यरूप है या अघाती कर्म द्रव्यरूप है ? लेश्या घातीकर्म द्रव्यरूप नहीं है। क्योंकि घातीकर्म
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