Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
चतुर्थ मित्र ने कहा-मित्र, तुम्हारा कथन भी मुझे युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। छोटी-छोटी शाखाओं को तोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है । केवल फलों के गुच्छों को ही तोड़ना पर्याप्त है।
.. पांचवें मित्र ने कहा-फलों के गुच्छों को तोड़ने से क्या लाभ है, उस गुच्छे में तो कच्चे और पक्के दोनों ही प्रकार के फल होते हैं। हमें पके फल ही तोड़ना चाहिए । निरर्थक कच्चे फलों को क्यों तोड़ा जाय ?
छठे मित्र ने कहा- मुझे तुम्हारी चर्चा ही निरर्थक प्रतीत हो रही है । इस वृक्ष के नीचे टूटे हुए हजारों फल पड़े हुए हैं। इन फलों को खाकर ही हम पूर्ण सन्तुष्ट हो सकते हैं। फिर वृक्ष, टहनियों और फलों को तोड़ने की आवश्यकता ही नहीं।
प्रस्तुत रूपक के द्वारा आचार्य ने लेश्याओं के स्वरूप को प्रकट किया है। छह मित्रों में पूर्व-पूर्व मित्रों के परिणामों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर मित्रों के परिणाम शुम-शुभतर और शुभतम हैं । क्रमशः उनके परिणामों में संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता है। इसलिए प्रथम मित्र के परिणाम कृष्णलेश्या वाले हैं, दूसरे के नीललेश्या वाले हैं तीसरे की कापोतलेश्या, चतुर्थ मित्र की तेजोलेश्या, पांचवें की पद्मलेश्या और छठे मित्र की शुक्ललेश्या है ।
एक जंगल में डाकुओं का समूह रहता था । वे लूटकर अपना जीवनयापन करते थे । एक दिन छह डाकुओं ने सोचा कि किसी शहर में जाकर हम डाका डालें । वे छह डाकू अपने स्थान से प्रस्थित हुए। छह डाकुओं में से प्रथम डाकू ने एक गांव के पास से गुजरते हुए कहा-रात्रि का सुहावना समय है। गांव के सभी लोग सोए हैं । हम इस गांव में आग लगा दें ताकि सोये हुए सभी व्यक्ति और पशु-पक्षी आग में झुलस कर खतम हो जायेंगे। उनके करुणक्रन्दन को सुनकर बड़ा आनन्द आयगा ।
दूसरे डाकू ने कहा-बिना मतलब के पशु-पक्षियों को क्यों मारा जाये ? जो हमारा विरोध करते हैं उन मानवों को ही मारना चाहिए ।
तीसरे डाकू ने कहा-मानवों में भी महिला वर्ग और बालक हमें कभी भी परेशान नहीं करते । इसलिए उन्हें मारने की आवश्यकता नहीं। अतः पुरुष वर्ग को ही मारना चाहिए।
चतुर्थ डाक ने कहा-सभी पुरुषों को भी मारने की आवश्यकता नहीं है। जो पुरुष शस्त्रयुक्त हों केवल उन्हें मारना चाहिए।
पांचवें डाकू ने कहा-जिन व्यक्तियों के पास शस्त्र हैं किन्तु वे हमारा किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करते उन व्यक्तियों को मारने से भी क्या लाम ?
छठे डाकू ने कहा-हमें अपने कार्य को करना है । पहले ही हम लोग दूसरों का धन चुराकर पाप कर रहे हैं, और फिर जिसका धन हम अपहरण करते हैं, उन धनिकों के प्राण को लूटना भी कहाँ की बुद्धिमानी है ? एक पाप के साथ दूसरा पाप करना अनुचित ही नहीं बिलकुल अनुचित है। - इन छह डाकुओं के भी क्रमशः विचार भी क्रमशः एक दूसरे से निर्मल होते हैं, जो उनकी निर्मल-भावना को व्यक्त करते हैं।
उत्तराध्ययन नियुक्ति में५२ लेश्या शब्द पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा है कि लेश्या के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार निक्षेप होते हैं। नो-कर्मलेश्या और नो-अकर्मलेश्या ये दो निक्षेप और भी होते है। नो-कर्म लेश्या के जीव नो-कर्म, और अजीव नो-कर्म ये दो प्रकार हैं। जीव नो-कर्म लेश्या भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक के भेद से वह भी दो प्रकार की है। इन दोनों के कृष्ण आदि सात-सात प्रकार हैं ।
अजीव नो-कर्म द्रव्यलेश्या के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारक, आभरण, छादन, आदर्श, मणि तथा कामिनी ये दस भेद हैं और द्रव्य कर्म लेश्या के छह भेद हैं ।
आचार्य जयसिंह ने संयोगज, नाम की सातवीं लेश्या भी मानी है जो शरीर की छाया रूप है। कितने ही आचार्यों का मन्तव्य है कि औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहरकमिश्र, कार्मण काय का योग ये सात शरीर हैं तो उनकी छाया भी सप्तवर्णात्मिका होगी, अत: लेश्या के सात भेद मानने चाहिए।५३
लेश्या के सम्बन्ध में एक गम्भीर प्रश्न है कि किस लेश्या को द्रव्य-लेश्या कहें और किसे भाव-लेश्या कहें ?
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