Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
श्रु तज्ञान (प्रमाण) शब्द जैनदर्शन की अपनी मौलिक देन है। यह जिस रूप में जैनदर्शन में पाया जाता है, उस रूप में अन्य दर्शनों में नहीं पाया जाता है। फिर भी श्रु तज्ञान एवं शब्दप्रमाण शब्दों में कोई विशेष अन्तर नहीं है क्योंकि दोनों में ही शब्द की प्रधानता है, यह आगे के विवेचन से स्पष्ट हो जायेगा।
जैनाचार्यों के अनुसार आप्तवचन से आविर्भूत होने वाला अर्थ-संवेदन आगमप्रमाण है । साथ ही इनका यह भी कहना है कि यदि अन्य दार्शनिक यह आशंका करें कि जब अर्थ का संवेदन आगम है तो वह आप्तवचनात्मक ही कैसे हो सकता है ? तो प्रत्युत्तर में इनका कहना है कि उपचार से वचन भी आगम है।
माणिक्यनन्दी आप्त के वचन एवं संकेत आदि के निमित्त से होने वाले ज्ञान को आगम कहते हैं।
उक्त दोनों परिभाषाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं है । केवल माणिक्यनन्दी ने लक्षण में आदि पद से संकेत आदि ग्रहण विशेषरूप से किया है।
सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार वक्ता के दृष्ट और इष्ट के अविरोधी वाक्य से तथा तत्त्वग्राहिता से उत्पन्न वाक्य शब्द-प्रमाण हैं।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि आप्त के वचन से उत्पन्न हुआ पदार्थ का ज्ञान 'आगमप्रमाण' है और उपचार से आप्त के वचन को भी आगमप्रमाण कहते हैं । इस बात में तो सभी जैनाचार्य एकमत हैं, किन्तु आप्त के स्वरूप के विषय में उनके परस्पर भिन्न-भिन्न मत हैं। आप्त का स्वरूप
कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने नियमसार नामक ग्रन्थ में आप्त के स्वरूप को बतलाते हुए लिखा है कि-'जिसके समस्त दोष दूर हुए हैं ऐसा जो सकलगुणमय पुरुष है वह आप्त है। इसके विपरीत जिसके समस्त दोष दूर नहीं हुए हैं ऐसा जो सकलगुणहीन पुरुष है वह अनाप्त है ।
नियमसार की टीका करते हुए पद्मप्रभमलधारि ने भी लिखा है कि 'जो शंका रहित है वह आप्त है । इसके विपरीत जो शंका से युक्त है वह अनाप्त है।"
समन्तभद्र का कहना है कि जो दोषों को नष्ट कर चुका है, सर्वज्ञ और आगमेशी अर्थात हेयोपादेयरूप अनेकान्त तत्व के विवेकपूर्वक आत्महित में प्रवृत्ति करने वाले अबाधित सिद्धान्तशास्त्र का स्वामी अर्थात् आगम का स्वामी है वह नियम से आप्त होता है, दूसरे प्रकार से आप्तता नहीं हो सकती है। साथ ही इनका यह भी कहना है कि जिसमें क्षुधा, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, मद, राग, द्वेष, मोह और च शब्द द्वारा सूचित चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, विवाद, खेद, और स्वेद-ये अठारह दोष नहीं वह आप्त है और उसे निर्दोष कहते हैं । १३
समन्तभद्र का यह भी कहना है कि जिसमें निर्दोषिता, सर्वज्ञता और आगमेशिता इसमें से यदि एक गुण भी नहीं है तो वह आप्त भी नहीं है । इनके अनुसार तो आप्त में तीनों गुणों का होना आवश्यक है । इस प्रकार सर्वज्ञ, अर्हन्त और तीर्थकर आदि ही आप्त हो सकते है । क्योंकि ये तीनों गुण तो उन्हीं में पाये जाते हैं। वैसे भी स्वयं समन्तभद्र ने अपनी आप्तमीमांसा में अर्हन्त के विषय में कहा है कि 'अर्हन्त ही आगम का स्वामी है, जिसकी सर्वज्ञता के कारण उसके वचनों में युक्ति और शास्त्र में किसी प्रकार का विरोध नहीं आता है । वही राग-द्वेषादि दोनों से सर्वथा रहित अर्थात् निर्दोष है और उसके द्वारा ही माने गये तत्व प्रमाणों से बाधित नहीं होते हैं ।
समन्तभद्र के समान अकलंकदेव ने भी अर्हन्त को ही सर्वज्ञ कहा है । इनके अनुसार अर्हन्त ही सर्वज्ञ हैं, इनके अतिरिक्त दूसरे न्याय और आगम के विरुद्ध कथन करते हैं ?१५
हेमचन्द्राचार्य ने भी अर्हन्त को ही अपने आत्मनिश्चयालंकार में सर्वज्ञ कहा है। इनके अनुसार जो सर्वज्ञ अर्थात् सब कुछ जानता है, रागादि दोषों को जीत चुका हो, जो तीन लोकों में पूजित हो, वस्तुएँ जैसी हैं उन्हें वैसी ही कहता हो, वही परमेश्वर अर्हत् देव है।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जो सर्वज्ञ होता है वही सभी दोषों से रहित और आगम का स्वामी होता है । क्योंकि निदोषिता के बिना सर्वज्ञता सम्भव नहीं और सर्वज्ञता के बिना आगमेशिता नहीं हो सकती है। इसलिए तीर्थंकर आदि ही आप्त, सिद्ध होते हैं, क्योंकि ये तीनों गुण इनमें विद्यमान हैं । तीर्थंकर, अर्हन्त आदि को आप्त मानने के विषय में सभी जैनाचार्य परस्पर सहमत हैं। साथ ही इनका यह भी कहना है कि उक्त तीन गुणों से युक्त जो आप्त हैं, उनका बहुविध नामों से कीर्तन या स्मरण किया जाता है । जिनमें से कुछ नाम तो समन्तभद्र ने अपने रत्नकरण्ड उपासकाध्ययन में इस प्रकार गिनाये हैं। इनका कहना है कि ऊपर वर्णित स्वरूप को लिए हुए जो
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