Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन और बौद्ध साधना-पद्धति
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धर्मध्यान की सिद्धि में कारण होती हैं । इसी प्रकार बौद्धधर्म में निर्दिष्ट चार ब्रह्मविहारगत भावनायें (मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा) रूपध्यान की प्राप्ति के लिए होती हैं । बौद्धधर्म में ध्यान और समाधि में किञ्चित् भेद दिखाई देता है।
जैन साधना के अणुव्रत और महाव्रतों की तुलना बौद्ध साधना के दस शिक्षापदों से तथा बारह भावनाओं की तुलना अनित्यता आदि भावों से की जा सकती है। जैनधर्म का सम्यग्दृष्टि बौद्धधर्म के स्रोतापन्न से मिलता-जुलता है। इसी तरह सगदागामी, अनागामी और अर्हत् जैनधर्म के लोकान्तिकदेव, क्षपकश्रेणी तथा अर्हन्तावस्था से मेल खाते है । गुणस्थानों की तुलना दस प्रकार की भूमियों से की जा सकती है ।
इस प्रकार जैन-बौद्धधर्म योग-साधना के क्षेत्र में लगभग समान रूप से चिन्तन करते हैं, पर उनके पारिभाषिक शब्दों में कुछ वैभिन्न्य है। इस वैभिन्न्य को अभी सूक्ष्मतापूर्वक परखा जाना शेष है । यह काम एक लेख का नहीं बल्कि एक महाप्रबन्ध का विषय है। संदर्भ एवं सन्दर्भ स्थल १ ज्ञानार्णव; ३२, ६; २ तत्त्वार्थ सूत्र, ७, ११ ३ षट्प्रामृत, १, ४, ५ ४ मज्झिम निकाय, सम्मादिट्टि सुत्तन्त, १, १, ६
थेरगाथा ६ देखिये, लेखक का ग्रन्थ बौद्ध संस्कृति का इतिहास, पृ० ८५-६२ ७ षट्प्रामृत, ६,६, ८ विसुद्धिमग्ग, १४; पृ० ३०५
६ षट्प्रामृत, ६५ १० उत्तराध्ययन, २८.३०
पियो गुरु भावनीयो वत्ता च वचनक्खमो। गंभीरञ्च कथंकत्ता नो चढ़ाने नियोजये ।।
-मिलिन्दपह, ३-१२ १२ समन्तपासादिका, पृ० १४५-६ १३ धम्मसंगणि, पृ०१० १४ विशुद्धिमग्गो १५ विसुद्धिमग्ग, दीघनिकाय, १, पृ० ६५-६ १६ बौद्ध धर्म दर्शन, पृ०, ७४, विशुद्धि मग्ग (हिन्दी) भाग १, पृ० १४६ १८ बौद्धधर्म के विकास का इतिहास, पृ. ४५७. १८ गुह्य समाज, पृ. २७ १६ प्रवचनसार, १.११-१२, २.६४; ३.४५ ; नियमसार, १३७-१३६. २० कायवाइमनः कर्मयोगः, स आश्रवः, शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य ।
-तत्त्वार्थसूत्र, ६.१-४. २१ ज्ञानार्णव २२ जोगविहाणवीसिया, गाथा १, २३ योगशास्त्र, प्रकाश १, श्लोक १५ २४ उपासकाध्ययन, ७०८ २५ ज्ञानार्णव, ४०-४ २६ उपासकाध्ययन, ६५१-६५८ २७ योगसार प्राभृत, ६.६-११,१. ५६ २८ आदिपुराण, २१.८६-८८ २६ ज्ञानार्णव; ३७; योगशास्त्र, १०-५ ३० मंतमूलं विविहं वेचितं वमण-विदेयण धूमणेत्तसिसाणं । आउरे सरणं तिगच्छियं च तं परिन्नाय परिवए जे स भिक्खू ।
-उत्तरज्झयण १५.८ ३१ बितर्कः श्रुतम्, वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रान्ति:
-तत्त्वार्थ सूत्र, ६.४३-४४,
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