Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
४३६
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन पन्थ : पंचम खण्ड
+++
+
+++
+
++
+
+++++++++++
मन : शक्ति, स्वरूप और साधना; एक विश्लेषण
डा० सागरमल जैन [अध्यक्ष, दर्शन विभाग, हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल]
नैतिक-साधना में मन का स्थान
भारतीय-दर्शन जीवात्मा के बन्धन और मुक्ति की समस्या की एक विस्तृत व्याख्या है। भारतीय चिन्तकों ने केवल मुक्ति की उपलब्धि के हेतु आचार-मार्ग का उपदेश ही नहीं दिया वरन् उन्होंने यह बताने का भी प्रयास किया कि बन्धन और मुक्ति का मूल कारण क्या है ? अपने चिन्तन और अनुभूति के प्रकाश में उन्होंने इस प्रश्न का जो उत्तर पाया वह है-"मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है ।" जैन, बौद्ध और हिन्दू दर्शनों में यह तथ्य सर्वसम्मत रूप से ग्राह्य है। जैनदर्शन में बंधन और मुक्ति की दृष्टि से मन की अपार शक्ति मानी गई है। बंधन की दृष्टि से वह पौराणिक ब्रह्मास्त्र से भी बढ़कर भयंकर है। कर्मसिद्धान्त का एक विवेचन है कि आत्मा के साथ कर्म-बंध की क्या स्थिति है ? मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बंध उत्कृष्ट रूप में एक सागर की स्थिति तक का हो सकता है । वचनयोग मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बंध हो सकता है । घ्राणेन्द्रिय अर्थात् नासिका के मिलने पर पचास सागर का, चक्ष के मिलते ही सौ सागर का और श्रवणेन्द्रिय अर्थात कान के मिलते ही हजार सागर तक का बंध हो सकता है। किन्तु यदि मन मिल गया तो मोहनीयकर्म का बंध लाख और करोड़ सागर को भी पार करने लगा। सत्तर क्रोडाकोड़ी (करोड़x करोड़) सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट मोहनीयकर्म 'मन' मिलने पर ही बाँधा जा सकता है ।
यह है मन की अपार शक्ति ! इसलिए मन को खुला छोड़ने से पहले विचार करना होगा कि कहीं वह आत्मा को किसी गहन गर्त में तो नहीं धकेल रहा है ? जैन विचारणा में मन मुक्ति के मार्ग का प्रथम प्रवेश द्वार भी है । वहाँ केवल समनस्क प्राणी ही इस मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं । अमनस्क प्राणियों को तो इस राजमार्ग पर चलने का अधिकार ही प्राप्त नहीं है। सम्यकदृष्टित्व केवल समनस्क प्राणियों को हो सकता है और वे ही अपनी साधना में मोक्ष-मार्ग की ओर बढ़ने के अधिकारी हो सकते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर कहते हैं कि "मन के संयमन से एकाग्रता आती है जिससे ज्ञान (विवेक) प्रगट होता है और उस विवेक से सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है और अज्ञान (मिथ्यात्व) समाप्त हो जाता है।" इस प्रकार अज्ञान का निवर्तन और सत्य दृष्टिकोण की उपलब्धि, जो मुक्ति (निर्वाण) की अनिवार्य शर्त है, बिना मनःशुद्धि के सम्भव ही नहीं है। अतः जैन विचारणा में मन मुक्ति का आवश्यक हेतु है। शुद्ध संयमित मन निर्वाण का हेतु बनता है जबकि अनियंत्रित मन ही अज्ञान अथवा मिथ्यात्व का कारण होकर प्राणियों के बंधन का हेतु है । इसी तथ्य को आचार्य हेमचन्द्र ने निम्न रूप में प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं "मन का निरोध हो जाने पर कर्म (बंधन) भी पूरी तरह रुक जाते हैं क्योंकि कर्म का आस्रव मन के अधीन है लेकिन जो पुरुष मन का निरोध नहीं करता है उसके कर्मों (बंधन) की अभिवृद्धि होती रहती है।"२
बौद्धदर्शन में चित्त, विज्ञप्ति आदि मन के पर्यायवाची शब्द हैं । तथागत बुद्ध का कथन है "सभी प्रवृत्तियों का आरम्भ मन से होता है, मन की उनमें प्रधानता है वे प्रवृत्तियां मनोमय हैं । जो सदोष मन से आचरण करता है, भाषण करता है उसका दुःख वैसे ही अनुगमन करता है जैसे रथ का पहिया घोड़े के पैरों का अनुगमन करता है। किन्तु जो स्वच्छ (शुद्ध) मन से भाषण एवं आचरण करता है उसका सुख वैसे ही अनुगमन करता है जैसे साथ नहीं छोड़ने वाली छाया।" कुमार्ग पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक अहितकारी और सन्मार्ग पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक हितकारी है, जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org