Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्य खण्ड
पुनर्जन्म सिद्धांत :
प्रमाणसिद्ध सत्यता
* श्री भगवतीमुनि 'निर्मल'
ही सज्ञान सचेतन प्राणधारियों, मनुष्याया हूँ और कहाँ जाऊँगा . परत है और प्रयास करने पर
सनातन प्रश्न
. प्रायः सभी सज्ञान सचेतन प्राणधारियों, मनुष्यों के जीवन में किसी न किसी समय यह प्रश्न आये बिना नहीं रहता है कि 'कोऽहं कुतः आयातः'-मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊँगा? प्रश्न बहुत स्पष्ट है, लेकिन अनभिज्ञ एवं अल्पज्ञ व्यक्ति तो इस प्रश्न को किसी न किसी प्रकार टालने का प्रयास करते हैं और प्रयास करने पर भी जब सफल नहीं होते हैं, स्वयं समाधान के किसी निश्चित केन्द्र बिन्दु पर नहीं आ पाते और दूसरों की जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर पाते तो कह बैठते हैं
यावज्जीवेद् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा धृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्यः पुनरागमनं कुतः ॥ जब तक रहो सुख, भोग-विलास में जीवन को बिताओ, सुख के साधन स्वयं के पास न हों तो दूसरों से उधार ले लो और उधार भी न मिलते हों तो येन-केन-प्रकारेण उन पर अधिकार कर लो किन्तु सुखपूर्वक रहो। क्योंकि इस शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः यह शरीर मिले या न मिले कुछ निश्चित नहीं है, अतः वर्तमान की उपेक्षा करके भावी के वात्याचक्र में भटकते रहना कौनसी बुद्धिमानी है ? लेकिन विवेकशील विद्वानों का यह दृष्टिकोण नहीं रहता है। अधिकांश विद्वान् विचार करके थक जाते हैं और उत्तर शायद ही पाते हैं, परन्तु उपेक्षणीय नहीं मानते हैं । क्योंकि ये प्रश्न सनातन हैं और समाधान के प्रयास भी पुरातन हैं । अतीत काल से ही यह खोज सभी देशों, सभी मतों और सभी दर्शनों में की जा रही है । दर्शनों के आविर्भाव, उत्पत्ति का यही प्रश्न मूल आधार है। दार्शनिकों ने विभिन्न रीति से उत्तर दिये हैं और अपने-अपने विचार प्रदर्शित किये हैं। इस प्रश्न पर विचार-परामर्श किये बिना उन-उन दर्शनों के आध्यात्मिक सिद्धान्त को स्थापित करना असंभव एवं कठिन है। प्रश्न की जटिलता का कारण
प्रश्न की जटिलता के रहस्य का अन्वेषण करने पर हमें दो स्थितियाँ दृष्टिगोचर होती हैं—पहली, हमारे अन्तर में व्याप्त तत्व जिसे आत्मा कहते हैं उसे सभी आस्तिकवादी दार्शनिकों ने अच्छेद्य, अदाह्य, नित्य, सनातन माना है । दूसरी बात उसका जन्म और मरण के बीच अवस्थान है-जातस्य हि ध्रवो मृत्युन'वं जन्ममृतस्य च । वेद, उपनिषद्, आगम, त्रिपिटक, अवेस्ता, बाईबिल आदि से लेकर अधुनातन वाङमय में इन्हीं दो बातों का विचार किया गया है। सभी का बीज प्रश्न यही है।
आत्मा की सनातनता स्वानुभाव प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर भी भले ही कोई उसे 'प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध नहीं है', यह कहकर उपेक्षा कर दे । पर जन्म और मरण हमारे दैनंदिन अनुभव के विषय हैं, वे प्रत्यक्ष हैं। प्रतिदिन किसी न किसी के जन्म और मरण के दृश्य हम देखते रहते हैं, तथापि यह नहीं कहा जा सकता है कि सभी इनके वास्तविक रहस्य से परिचित हैं । अपरिचित रहने का कारण यह है कि इन्हीं के कार्यरूप पूर्वजन्म-पुनर्जन्म और परलोक तथा इन सबका अन्तिम पर्यवसान जिसमें होता है वह अमृतत्व रूप मोक्ष इत्यादि चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रमाण गोचर नहीं हैं। इसीलिये ये विषय अनादि काल से विवादास्पद रहे हैं और जिज्ञासा के निकष पर पुनः-पुनः परीक्षणीय रहे हैं। जिसका संकेत मिलता है मुमुक्षु बालक नचिकेता द्वारा यमराज से पूछे गये प्रश्न से कि
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