Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन दर्शन में जीव तत्त्व
२९३ .
का एक भेद है । संसार के समस्त जीव एक हैं, सब में चेतना गुण होने से, जिसमें चेतना गुण नहीं, वह जीव भी नहीं, जैसे पुद्गल । अतः जहाँ-जहाँ जीवत्व है, वहाँ-वहाँ चेतना गुण भी अवश्य ही है।
V चेतना के स्वरूप का प्रतिपादन दो प्रकार से किया गया है-आगमिक दृष्टि से और दार्शनिक दृष्टि से । आगमिक दृष्टि से चेतना क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा गया है, कि जीव के बोध रूप व्यापार को चेतना कहते हैं । जीव का यह बोध रूप व्यापार दो प्रकार का है-सामान्य और विशेष । जीव की चेतना जब वस्तु के विशेष धर्मों को गौण करके वस्तु के सामान्य धर्मों को मुख्य रूप से ग्रहण करती है, तब उसे दर्शन चेतना कहते हैं । यह दर्शन चेतना ही जीव का सामान्य रूप बोध व्यापार कहा जाता है । जीव की चेतना जब वस्तु के सामान्य धर्मों को गौण करके वस्तु के विशेष धर्मों को मुख्य रूप से ग्रहण करती है, तब उसे ज्ञान चेतना कहते हैं । यह ज्ञान चेतना ही जीव का विशेष रूप बोध व्यापार कहा जाता है । एक ही चेतना कभी सामान्य रूप और कभी विशेष रूप क्यों होती है ? क्योंकि प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है। सामान्य को ग्रहण करने वाली दर्शन चेतना और विशेष को ग्रहण करने वाली ज्ञान चेतना । ज्ञान और दर्शन दोनों जीव के सहज, स्वाभाविक और अनुगत गुण हैं ।
दार्शनिक दृष्टि से चेतना के तीन प्रकार हैं-ज्ञान चेतना, कर्म चेतना और कर्मफल चेतना । किसी भी वस्तु को जानने के लिए चेतना का जो ज्ञानरूप परिणाम, वह ज्ञान चेतना है । कषाय के उदय से चेतना का जो क्रोध रूप परिणाम, वह कर्म चेतना है । शुभ एवं अशुभ कर्म के उदय से चेतना का जो सुख-दुःख रूप परिणाम, वह कर्मफल चेतना है। चेतना के उक्त तीन रूपों को अन्य प्रकार से भी कहा जाता है; जैसे-जिस जीव के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और वीर्यान्तराय रूप घातीकों का उदय-भाव है, इस कर्मोदय के कारण ही जिसकी चेतना शक्ति अविकसित है, अतः जो इष्ट एवं अनिष्ट रूप कार्य करने में समर्थ नहीं है, और जो प्रधान रूप से कर्म के फल का वेदन करता है, उस एकेन्द्रिय आदि जीव की चेतना, कर्मफल चेतना है। जिस जीव के ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीयकर्म का विशेष उदय-भाव होता है, कर्मोदय के कारण जिसकी चेतना मलिन है, किन्तु वीर्यान्तराय कर्म के किंचित् क्षयोपशम से जो इष्ट एवं अनिष्ट कार्य करने में समर्थ है, उस द्वीन्द्रिय आदि जीव की चेतना, प्रधानरूप से कर्म चेतना है। जिस जीव के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और वीर्यान्तराय कर्मों का अशेष क्षय हो चुका है, जो कर्म और उसके फल को भोगने में विकल्प-रहित है, उस जीव की चेतना, प्रधान रूप से ज्ञान चेतना है। किन्तु चेतना जीवमात्र का लक्षण होने से सभी जीवों में होती है । एक अन्य प्रकार से भी चेतना के तीन भेद हो सकते हैं-परम शुद्ध चेतना, शुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना। परम शुद्ध चेतना केवल सिद्धों में रहती है। संसारस्थ जीवों में सम्यग्दृष्टि में और व्रती साधक में शुद्ध चेतना होती है, और मिथ्यादृष्टि में अशुद्ध चेतना होती है । परन्तु चेतना की सत्ता सभी जीवों में है ।
द्विविध जीव: जीव के दो भेद भी हैं-त्रस और स्थावर । ये दोनों भेद संसारी जीव की अपेक्षा से किये गये हैं । जिस जीव को बस नामकर्म का उदय हो, वह त्रस जीव और जिसको स्थावर नामकर्म का उदय हो, वह स्थावर जीव । त्रस के दो भेद हैंाति अस और लब्धि त्रस । स्वतन्त्र रूप से गमन करने की शक्ति जिसमें हो. वह गति त्रस और सुखदुःख की इच्छा से गमन करने वाला लब्धि त्रस होता है । गति त्रस के दो भेद हैं-तेजस्काय और वायुकाय । लब्धि त्रस के चार भेद हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । स्थावर के तीन भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय औद वनस्पतिकाय ।
- बस और स्थावर शब्दों का अर्थ दो प्रकार से किया जाता है-क्रिया की अपेक्षा से और कर्म के उदय की अपेक्षा से। क्रिया की अपेक्षा से स्थावर वह होता है, जो स्थान शील हों, जो चलते-फिरते न हों, एक स्थान पर स्थिर हों, इस अपेक्षा से स्थावर के तीन ही भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय । कर्म के उदय की अपेक्षा से स्थावर वह होता है, जिसको स्थावर नामकर्म का उदय हो । कर्म के उदय की अपेक्षा से तेजस्काय और वायुकाय भी स्थावर ही हैं। इस दृष्टि से स्थावर के पाँच भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । काय शब्द की व्याख्या आगे दी जाएगी। बस के चार भेद हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । त्रस और स्थावर के भेदों में संसारी जीवों का समग्रभाव से समावेश हो जाता है । संसारी जीव इन दोनों भेदों से बाहर नहीं रहते । मुक्त एवं सिद्ध का स्वरूप आगे बताया जाएगा।
त्रिविध जीव : वेद की अपेक्षा से जीव के तीन भेद हैं-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद । संसारी जीवों में इन तीन
पद है पृथ्वीकाय, अप्काय और बना अपेक्षा से तेजस्काय और वायुकाय काय शब्द
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