Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
पञ्च विध जीव:
करण की अपेक्षा से जीव के पाँच भेद हैं, करण का अर्थ क्या है ? करण का अर्थ है-इन्द्रिय । मतिज्ञान और श्र तज्ञान बिना इन्द्रियों के नहीं हो सकता है। इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होने पर ही किसी वस्तु का परिज्ञान हो सकता है । अतः ज्ञान में इन्द्रिय का होना आवश्यक है। किसी भी प्रकार का लौकिक प्रत्यक्ष बिना इन्द्रिय के नहीं होता है । परन्तु प्रश्न यह है, कि इन्द्रिय का अर्थ क्या ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि इन्द्र का अर्थ हैआत्मा एवं जीव । इन्द्र का, आत्मा का तथा जीव का परिबोध जिससे हो, वह इन्द्रिय है। जीव की चेतना-शक्ति को इन्द्रिय प्रकट करती है । इन्द्रिय के पांच भेद हैं-स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र । ये ज्ञानेन्द्रिय के पाँच भेद हैं। कुछ विचारक कर्मेन्द्रिय के पाँच भेद और मानते हैं । जैसे वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ । किन्तु ये सब.शरीर से भिन्न नहीं हैं।
एक अन्य प्रकार से भी इन्द्रियों का वर्गीकरण इस प्रकार से किया गया है। इन्द्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । पुद्गल के द्वारा इन्द्रियों का जो आकार विशेष बनता है, वह द्रव्येन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय, निर्माण नामकर्म और अंगोपांग नामकर्म के उदय का फल है । मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से होने वाला जो आत्मिक परिणाम विशेष, वह भावेन्द्रिय है । द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं-निर्वृत्ति और उपकरण । निवृत्ति के दो भेद हैं-आभ्यन्तर और बाह्य । उपकरण के भी दो भेद हैं-आभ्यन्तर और बाह्य । निर्वृत्ति क्या है ? पुद्गल की रचना विशेष और उपकरण क्या है ? उस रचना का उपघात नहीं होने देना। निवृत्ति का उपकारक होने से इसको उपकरण कहते हैं। भावेन्द्रिय के दो भेद हैं-लब्धि और उपभोग । लब्धि का अर्थ है-प्राप्ति । इन्द्रियों की अपने-अपने विषय के ग्रहण की शक्ति को ही वस्तुतः लब्धि कहते हैं, और उपभोग है, उस शक्ति का अपने-अपने विषय में प्रवृत्त होना । लब्धि शक्ति है, और उपभोग है, उसकी प्रवृत्ति । लब्धि और उपभोग दोनों मति ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम रूप हैं । इसी आधार पर दोनों को मावेन्द्रिय कहते हैं।
पांच इन्द्रियों के नाम इस प्रकार हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । इन्द्रियों के विषय भी पाँच हैं-स्पर्शन का विषय स्पर्श, रसन का विषय रस, घ्राण का विषय गन्ध, चक्षु का विषय वर्ण (रूप) और श्रोत्र का विषय शब्द । पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय होते हैं, क्योंकि स्पर्श के आठ भेद, रस के पाँच भेद, गन्ध के दो भेद, वर्ण के पाँच भेद और शब्द के तीन भेद होते हैं, सब मिलाकर तेईस भेद हुए। न्याय-शास्त्र में एक अन्य प्रकार से इन्द्रियों के दो भेद किए गए है—प्राप्यकारि और अप्राप्यकारि। जो इन्द्रियाँ अपने विषय के साथ सम्बद्ध होकर, अपने विषय का ज्ञान करती है, एवं अपने विषय को ग्रहण करती हैं, वे प्राप्यकारि हैं । जैसे-स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र । जो अपने विषय से सम्बद्ध न होकर भी अपने विषय को ग्रहण कर लेती है, वह अप्राप्यकारि है । जैसे चक्षु अर्थात् नेत्र । संक्षेप में यह इन्द्रियों के स्वरूप का वर्णन है ।
किस जीव के कितनी इन्द्रियाँ हैं ? इसका उत्तर इस प्रकार से है-पांच स्थावर जीवों के एक-एक इन्द्रिय है। कृमि आदि के दो-स्पर्शन और रसन । पिपीलिका आदि के तीन स्पर्शन, रसन और घ्राण । भ्रमर आदि के चारस्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु । मनुष्य एवं पशु आदि के पांच-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कर्ण)। पाँच स्थावरों के केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है, शेष इन्द्रियाँ त्रस जीवों के ही होती हैं। इन्द्रियों के आधार पर संसारी जीवों के पाँच भेद होते हैं। जैसे कि एकेन्द्रिय जाति-जिसके केवल एक स्पर्शन हो । द्वीन्द्रिय जाति-जिनके केवल दो स्पर्शन और रसन हो । त्रीन्द्रिय जाति-जिनके केवल तीन स्पर्शन, रसन और घ्राण हो। चतुरिन्द्रिय जाति-जिनके केवल चार, स्पर्शन, रसन, प्राण और चक्ष (नेत्र) हो। पञ्चेन्द्रिय जाति--जिनके केवल पाँच, स्पर्शन-रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कर्ण) हो । यहाँ पर जाति शब्द समूह वाचक है, जिसका अर्थ है, कि समस्त संसारी जीव पाँच विभागों में विभक्त हैं। इन पांच मेदों से बाहर संसार का कोई भी जीव एवं प्राणी बचा नहीं रहता है। षड्विध जीव:
काय की अपेक्षा से संसारी जीव के छह भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पति काय और त्रसकाय । 'काय' का अर्थ है-समूह एवं समुदाय । संसार के समस्त जीव छह कायों में विभक्त होने से छह काय हैं । अथवा काय का अर्थ शरीर भी होता है । इसके अनुसार पृथ्वी है, काय जिनकी वे पृथ्वीकाय जीव हैं। अप् (जल) है, शरीर जिनका वे अप्काय जीव हैं । तेजस् (अग्नि) है, शरीर जिनका वे तेजस्काय जीव हैं । वायु है, शरीर जिनका, वे वायुकाय जीव हैं। वनस्पति (सब्जी) है, शरीर जिनका, वे वनस्पतिकाय जीव हैं। जिनके शरीर में यात एवं आयात आदि क्रिया होती है, वे सकाय जीव हैं। अथवा जिन जीवों को स्थावर नामकर्म का उदय हो, वे स्थावर
। संसार के सम, काय जिनकी वे पृवायु है, शरीर
एवं
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