Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैनदर्शन में आगम (श्रुत) प्रमाण
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KAN जैनदर्शन में पागम (श्रुत) प्रमाण
* सुश्री डॉ० हेमलता बोलिया एम. ए. पी-एच. डी
जैनदर्शन में प्रमाण चर्चा सर्वप्रथम उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में देखने को मिलती है । जैन आगमिक परम्परा में ज्ञान के पांच भेद-(मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान) उपलब्ध हैं । वहाँ इन पाँच ज्ञानों को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है । यथा-प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-(१) केवलज्ञान और (२) नोकेवलज्ञान । नोकेवलज्ञान के पुन: दो भेद किये गये हैं-(१) अवधि और (२) मनःपर्यय । तथा परोक्षज्ञान भी दो प्रकार से वर्णित है-(१) आभिनिबोधिक (मति) और (२) श्रु तज्ञान ।।
इन्हीं पांच ज्ञानों को उमास्वाति ने प्रमाण कहा है। अर्थात् इनकी दृष्टि में ज्ञान ही प्रमाण है। इन्होंने मति ज्ञान के ही पर्याय स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध बतलाये हैं। इस प्रकार उमास्वाति ने अपने समय में प्रचलित स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान प्रमाणों का अन्तर्भाव मतिज्ञान में करके जैन क्षेत्र में प्रमाणपद्धति को आगे बढ़ाया किन्तु प्रमाणशास्त्र की व्यवस्थित रूपरेखा भट्ट अकलंकदेव के समय से ही प्रारम्भ होती है । यद्यपि जिनभद्रगणि" ने मन और इन्द्रिय की सहायता से होने वाले मतिज्ञान को परोक्ष की परिधि से निकालकर तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम देकर प्रत्यक्ष की परिधि में सम्मिलित किया। जिससे जैनेतर दार्शनिकों से इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष न मानने का जो विवाद था वह समाप्त हो गया। फिर भी प्रमाणशास्त्र की व्यवस्थित रूपरेखा स्थापित करने का श्रेय भट्ट अकलंकदेव को ही प्राप्त है । इन्होंने भी तत्त्वार्थसूत्र के तत्प्रमाणे सूत्र को आदर्श मानकर अपने लघीयस्त्रय नामक ग्रन्थ में प्रमाण विभाग इस प्रकार किया है
प्रमाण
प्रत्यक्ष
परोक्ष
सांव्यावहारिक प्रत्यय
मुख्य प्रत्यय
स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान आगम यद्यपि अकलंक के ग्रन्थों के प्रमुख टीकाकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्दी को स्मृति आदि को अतीन्द्रियप्रत्यक्ष मानना अभीष्ट नहीं हुआ फिर भी समस्त उत्तरकालीन जैन दार्शनिकों ने अकलंक द्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाण-पद्धति को एक स्वर से स्वीकार किया है।
आगम या श्रुत प्रमाण अन्य दर्शनों में मान्य शब्द प्रमाण ही जैनदर्शन में आगम या श्रु त प्रमाण के नाम से जाना जाता है किन्तु जैनाचार्यों में सिर्षि ही ऐसे हैं जिन्होंने सर्वप्रथम आगम प्रमाण के स्थान पर शब्द प्रमाण शब्द का प्रयोग किया है ।
जनाचायों में सार्थना ऐसा महान मात्र
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