Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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तृतीय खण्ड : गुरुदेव को साहित्य धारा
२३५
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६१. अपना स्वार्थ जब राष्ट्र या समाज के साथ जुड़ जाता है तो वह व्यापक रूप लेकर पदार्थ या
परमार्थ बन जाता है। ६२. तुम भोग-विलास के कीचड़ में कीड़े बन कर रेंगो मत, किन्तु गरुड़ बनकर संयम और स्वतन्त्रता
के आसमान में उड़ान भरो! ६३. संघर्ष और अव्यवस्था का मूल कारण है-अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर पर डाल देना। ६४. प्रसन्नता अव्यवस्था का सबसे पहला उपचार है। ६५. खिले हुए फूल को सब चाहते हैं, मुरझाये हुए फूल को कोई नहीं चाहता । उदास व्यक्ति के पास
कोई बैठना नहीं चाहता, हंस मुख के पास हर कोई जाना चाहता है। ६६. मनुष्य के मुख व मस्तक पर चढ़ी हुई त्योरियां देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी फूल पर कोटे
उभरे हुए हैं। ६७. प्राकृतिक सौन्दर्य और शान्ति, एकान्त समाधि, ध्यान एवं आत्मानन्द में सहायक होता है। ६८. भोजन और भजन के लिए हमेशा स्वच्छ, सुन्दर और एकान्त स्थान की अपेक्षा रहती है। ६६. कहते हैं चकोर चन्द्रमा का इतना अनन्य प्रेमी है कि वह उसके प्रेम में लीन होकर अंगारे भी
खा जाता है, और तब भी उसे पता नहीं चलता। साध्य के प्रति सच्ची लगन चकोर के जैसी ही होनी चाहिए जिसमें विघ्न-बाधाएँ आये तो साधक उनको पार तो करता ही जाये, पर उनका अनुभव मन को स्पर्श भी न कर सके। विघ्नों का पता
भी उसे न चले। ७०. भक्ति का अर्थ दासता या गुलामी नहीं है। किन्तु आराध्य के साथ अभेद तथा एकता की अनुभूति है।
भक्ति-अर्थात् भगवान में तन्मयता ७१. बिना एकाग्रता के आज तक किसी को सफलता नहीं मिली। ७२. अधिकार में अहंकार है, कर्तव्य में विनम्रता । ७३. सादगी भी अगर प्रदर्शन की चीज बन गई तो फिर वह सादगी कहाँ रही? ७४. शरीर की शाक्ति बढ़ाने के लिए विटामिनस् का प्रयोग किया जाता है और मन की शाक्ति बढ़ाने
के लिए एकाग्रता और ध्यान का प्रयोग। ७५. योग से न केवल शारीरिक रोग दूर होते हैं। किन्तु मानसिक रोग भी जड़ मूल से नष्ट हो
जाते हैं। ७६. गुरुजनों, वृद्धों, स्त्रियों और नौकरों के साथ कभी भी मजाक नहीं करना चाहिए। ७७. रोगी और विपत्ति में फंसे व्यक्ति को कभी भी हंसो मत, हो सके तो उनकी सहायता करो, अन्यथा
मौन ही रहो! ७८. आलोचना से डरना कायरता है, किन्तु आलोचना का अवसर ही न देना-जागरूकता और
प्रबुद्धता है। ७९. मैं अगर अपने आपको बदल लूगा, तो समाज और देश भी बदल जायेगा, वातावरण और परि
स्थितियां भी बदल जायेगी। हजारों घटक मिलकर ही तो समष्टि बनती है। ८०. त्याग की भावना आये बिना 'नैतिकता' पनप नहीं सकती। ८१. जिसको जितना परिग्रह, उसको उतनी ही चिन्ता और अशान्ति ! ८२. नारी का भूषण-सौन्दर्य नहीं, शील है।
पुरुष का भूषण-धन नहीं, दान है। साधु का भूषण-विद्वत्ता नहीं, त्याग है।
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