Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जनदर्शन को निक्षेपपद्धति
२६३ .
वशात् जो वस्तु को नाम आदि चार भेदों में क्षेपण कर स्थापित करे उसे निक्षेप कहते हैं। अथवा वस्तु का नाम आदिक में क्षेप करने या धरोहर रखने को भी निक्षेप कहते हैं । अथवा संयम, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तु को उनसे निकाल कर जो निश्चय में क्षेपण करता है, उसे भी निक्षेप कहते हैं । अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का नामादिक द्वारा निर्णय कराये, वह निक्षेप है। अथवा अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करना निक्षेप कहलाता है। अथवा शब्द का अर्थ में और अर्थ का शब्द में आरोप करना यानी जो शब्द और अर्थ को किसी एक निश्चय या निर्णय में स्थापित करता है, उसे निक्षेप कहते हैं ।
उक्त सभी लक्षणों का सारांश यह है कि जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान में क्षेपण किया जाये या उपचार से वस्तु में जिन प्रकारों से आक्षेप किया जाये, उसे निक्षेप कहते हैं। क्षेपण क्रिया के दो रूप हैं-प्रस्तुत अर्थ का बोध देने वाली शब्द रचना या अर्थ का शब्द में आरोप करना । यह कार्य वक्ता के अभिप्राय विशेष पर आधारित है।
निक्षेप का पर्यायवाची शब्द 'न्यास" है। जिसका प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र में हुआ है और तत्त्वार्थ राजवातिक में 'न्यासो निक्षेप: इन शब्दों द्वारा उसका स्पष्टीकरण किया गया है। न्यास (निक्षेप) का लक्षण इस प्रकार हैउपायो न्यास उच्यते । नामादिक के द्वारा बस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं।
निक्षेप का आधार निक्षेप का आधार पदार्थ है। चाहे फिर वह पदार्थ प्रधान, अप्रधान, कल्पित या अकल्पित कैसा भी क्यों न हो । भाव अकल्पित दृष्टि है । अतः वह प्रधान होता है, जबकि शेष तीन निक्षेप कल्पित होने से अप्रधान हैं। क्योंकि नाम में वस्तु की पहिचान होती है । स्थापना में आकार की भावना होती है, गुण की वृत्ति नहीं होती है । द्रव्य में मूल वस्तु नहीं, किन्तु इसकी पूर्व या उत्तर दशा या उससे सम्बन्ध रखने वाली अन्य कोई वस्तु होती है । इसमें भी मौलिकता नहीं है अतः ये तीनों अमौलिक हैं, मौलिक नहीं।
निक्षप निर्देश का कारण और प्रयोजन : जगत में मौलिक अस्तित्त्व यद्यपि द्रव्य का है और परमार्थ अर्थ संज्ञा भी इसी गुण-पर्याय वाले द्रव्य को दी जाती है लेकिन व्यवहार केवल परमार्थ मात्र से नहीं चल सकता। अत: व्यवहार के लिये पदार्थों का शब्द, ज्ञान और अर्थ इन तीन प्रकारों से निक्षेप किया जाता है । शब्दात्मक अर्थ का आधार है पदार्थ का नामकरण मात्र और तदाकार सद्भावरूप या अतदाकार-असद्भाव रूप में पदार्थ की स्थापना करना । ज्ञानात्मक अर्थ, स्थापना-निक्षेप में और शब्दात्मक अर्थ नामनिक्षेप में अन्तर्भूत होता है। लेकिन परमार्थ अर्थ द्रव्य और भाव हैं। जो पदार्थ की कालिक पर्याय में होने वाले व्यवहार के आधार बनते हैं तथा शाब्दिक व्यवहार शब्द से। इस प्रकार समस्त व्यवहार कहीं शब्द, कहीं अर्थ और कहीं स्थापना अर्थात् ज्ञान से चलते हैं । इसीलिये निक्षेप पदार्थ और शब्द प्रयोग की संगति का सूत्राधार है। इसे समझे बिना भाषा के वास्तविक अर्थ को समझा नहीं जा सकता । जिससे उस स्थिति में अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ अयुक्त प्रतीत होता है। किस शब्द का क्या अर्थ है, यह निक्षेपविधि द्वारा विस्तार से बतलाया जाता है।
दूसरी बात यह है कि श्रोता तीन प्रकार के होते हैं-अव्युत्पन्न श्रोता, सम्पूर्ण विवक्षित पदार्थ को जानने वाला श्रोता और एक देश विवक्षित पदार्थ को जानने वाला श्रोता।
उक्त तीनों प्रकार के श्रोताओं में से अव्युत्पन्न श्रोता यदि पर्याय (विशेष) को जानने का इच्छुक है तो उसे प्रकृत विषय की व्युत्पत्ति के द्वारा अप्रकृत विषय के निराकरण के लिये अथवा वह द्रव्य (सामान्य) को जानने का इच्छुक है तो प्रकृत विषय के प्ररूपण हेतु तथा दूसरे व तीसरे प्रकार के श्रोताओं को यदि पदार्थ के बारे में संदेह या विपर्याय हो तो संदेह दूर करने व निर्णय के लिये निक्षेपों का कथन किया जाता है।
निक्षेप भाषा और भाव, वाच्य और वाचक की संगति है। इसे जाने बिना भाषा के यथार्थ आशय को अधिगत नहीं कर सकते । अर्थ सूचक शब्द के पीछे पदार्थ की स्थिति को स्पष्ट करने वाला जो विशेषण लगता है यही निक्षेप पद्धति की विशेषता है। निक्षेप के द्वारा पदार्थ की स्थिति के अनुरूप शब्द रचना या शब्द प्रयोग की जो शिक्षा मिलती है, वही वाणी-सत्य का महान तत्व है । इसीलिये दूसरे शब्दों में इसे सविशेषण भाषा प्रयोग भी कह सकते हैं। भले ही अधिक अभ्यास दशा में विशेषण का प्रयोग न भी किया जाये। किन्तु वह विशेषण गभित अवश्य रहता है। यदि इस अपेक्ष्य दृष्टि की ओर ध्यान न दें तो कदम-कदम पर असत्य भाषण का प्रसंग आ सकता है। जैसे कि
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