Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ
इसी तरह सन् १९७७ में गुरुदेव मैसूर से बेंगलोर पधार रहे थे। बेंगलोर से ३५ मील की दूरी पर अवस्थित रामनगर गाँव में ध्यान से निवृत्त होकर बैठे ही थे कि बेंगलोर से एक कार आयी। उसमें बीस-पच्चीस वर्ष की एक बहिन थी। बेंगलोर के सभी डाक्टर उसका उपचार कर थक गये थे । पाँच दिन से उस बहिन ने न तो आँख खोली और न मुंह ही । खाना, पीना और बोलना भी बन्द था और देखना भी । अभिभावकों ने गुरुदेव से प्रार्थना की कि गुरुदेव, कोई आशा नहीं है । बेंगलोर के ही एक सन्माननीय श्रावक ने कहा कि महाराज के पास जाओ। उनका मांगलिक सुनो तो ठीक हो सकती हो । अतः गुरुदेव हम बहुत ही आशा से आये हैं । 'गुरुदेव ने कहा-मैं कोई डाक्टर नहीं हूँ। मैं तो साधक हूँ । साधना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है । गुरुदेव ने नवकार महामन्त्र ज्यों ही दो क्षण उस बहन को सुनाया और सामने पुस्तक को बताते हुए कहा-जरा इसे पढ़ो । बहिन दनादन पढ़ने लगी। सभी लोग गुरुदेव श्री के आध्यात्मिक तेज को देखकर चमत्कृत हो गये । उस बहिन ने पांच दिन से मुंह में अन्न का एक कण भी न डाला था और पानी की एक बंद भी न ली थी। उसने अच्छी तरह से भोजन किया।
गुरुदेव श्री का १६७४ वर्षावास अजमेर में था। पारसमल जी ढाबरिया को धर्मपत्नी ने मासखपण का तप किया । पारणे की पहली रात्रि में ही उस बहिन की तबीअत यकायक अस्वस्थ हो गयी । अजमेर के सुप्रसिद्ध डाक्टर सूर्यनारायण जी आदि ने कहा-बहिन की स्थिति गम्भीर है। बाहर के बहुत से सज्जन जो उनके सम्बन्धी थे वे लोग भी आये हए थे । बहिन की गम्भीर स्थिति के कारण सारा वातावरण प्रसन्नता के स्थान पर गम्भीर हो गया था। प्रातः भाई आये, उनके चेहरे मुरझाये हुए थे। गुरुदेव ने पूछा आज तो प्रसन्नता का दिन है, पर चेहरे पर उदासी कैसे? उन्होंने बताया कि बहिन की स्थिति नाजुक है । यदि तपस्या में ही उसका स्वर्गवास हो गया तो जैनधर्म की निन्दा होगी कि जैनी लोग तप करवाकर लोगों को मार देते हैं । यही चिन्ता मन को सता रही है। रात को बारह बजे से बहिन बेहोश पड़ी हुई है । गुरुदेव ने धैर्य बँधाते हुए कहा-धर्म के प्रसाद से सब अच्छा हो जायगा । गुरुदेव श्री उनके वहां पर पधारे। दो मिनिट तक गुरुदेव श्री ने कुछ सुनाया । बहिन उठ बैठी। पूर्ण स्वस्थ होकर उसने आहार-दान दिया। सर्वत्र प्रसन्नता की लहर व्याप्त हो गयी।
आपश्री अपने पूज्य गुरुदेव के साथ सन् १९३६ में बड़ौदा से सूरत पधार रहे थे। रास्ते में मीलों तक हिन्दुओं की बस्ती नहीं है । सभी मुसलमानों के गाँव हैं। जवीपुरा के कपास की झीण में एक ब्राह्मण भोजन बनाने वाला था। आपश्री को उसके वहाँ से भोजन मिल गया। किन्तु ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला । और भडौंच वहाँ से बारह मोल था । अतः वहाँ पहुँचना भी सम्भव नहीं था। आपने इधर-उधर देखा । एक मुसलमान ने पूछा, क्या देखते हो बाबा ? आपश्री ने बताया हमें रात्रि विश्राम के लिए जगह चाहिए। उसने कहा देखिए, यह सामने भव्य भवन है, वह मेरा ही है । आप आराम से वहाँ पर रात्रि भर ठहर सकते हैं । महाराज श्री ने देखा मियां साहब बहुत ही सज्जन हैं। उन्होंने ठहरने के लिए बहुत सुन्दर स्थान बताया है। बंगला बहुत ही बढ़िया बना हुआ था। आप वहाँ पर जाकर ठहरे। उस समय आप और आपके गुरुजी श्री ताराचन्द जी महाराज ये दो ही सन्त थे। तीसरे पण्डित रामानन्द जी शास्त्री थे । अन्धेरी रात्रि थी । बंगला कुछ जंगल में था । अतः पण्डित जी एक दूकान से लालटेन किराये पर लाये । उन्होंने महाराज श्री से कहा- मैं अन्धेरे में नहीं रह सकता हूँ। आप एक तरफ सोयेंगे, मैं दूसरी तरफ सो जाऊँगा । गुरुदेव ने कहा-जहा सुहं देवाणुपिया ! रात्रि को नौ बजे तक आपश्री पण्डित जी से ज्ञान-चर्चा करते रहे। गुरुदेव ने पण्डित जी से कहा-ध्यान रखना, यह बंगला इतना सुन्दर है फिर भी लोग यहां पर नहीं रहते हैं। लगता है इस बंगले में कुछ उपद्रव हो । महाराज श्री तो ध्यान व जपादि कर सो गये । महाराज श्री को ज्योंही नींद आयी त्योंही एक भयंकर चीत्कार सुनायी दी। महाराज श्री ने बैठकर देखा पण्डित जी का दीपक टिमटिमा रहा था और पण्डित जी बुरी तरह से चिल्ला रहे थे। महाराज श्री ने सन्निकट जाकर पण्डित जी को पुकारा-पण्डितजी ! क्या बात है ? पण्डितजी का शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था । हृदय धड़क रहा था। महाराज, एक बहुत ही डरावनी सूरत मेरी छाती पर आकर के बैठ गयी और मुझे मारने लगी। महाराज श्री ने उन्हें आश्वस्त किया और कहा-पण्डित जी, सम्भव है आपका हाथ छाती पर रह गया है जिसके कारण आपके मन में भय पैदा हो गया है। घबराइये नहीं।
पण्डित जी ने कहा-नहीं महाराज, साक्षात् यम ही मेरी छाती पर बैठा था। मैं अब इस स्थान पर न सोऊँगा । पण्डित जी गुरुदेव के सन्निकट आकर सो गये। उन्होंने दीपक भी अपने पास ही रख लिया। गुरुदेव को ज्योंही नींद आयी त्योंही दुबारा पुनः पण्डित जी चीख उठे। गुरुदेव ने देखा, दीपक का प्रकाश जो बिलकुल ही मन्द हो चुका था, वह धीरे-धीरे पुनः तेज हो रहा था । और पण्डित जी थरथर काँप रहे थे। इस बार पहले की अपेक्षा अधिक घबराये हुए थे। घड़ी में देखा तो बारह बजे थे। गुरुदेव ने कहा-पण्डित जी, यह इसी मकान का चमत्कार है, पर अब घबराने की आवश्यकता नहीं है । आपका कुछ भी बाल-बांका नहीं होगा। गुरुदेव ने कुछ क्षणों तक ध्यान किया
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