Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
१६२
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन अन्य
शक्ति से उस विराट सत्य को ग्रहण करना संस्कृति है। भारतीय संस्कृति का अर्थ है विश्वास, विचार और आचार का समन्वय, अथवा स्नेह, सहानुभूति, सहयोग, सहकार और सहअस्तित्व की जीती जागती महिमा, जिसमें राम की निर्मल मर्यादा, कृष्ण का ओजस्वी कर्मयोग, महावीर की सर्वभूत क्षेमंकरी अहिंसा, बुद्ध की मधुर करुणा और महात्मा गान्धी की धर्म से अनुप्राणित राजनीति एवं सत्य का प्रयोग। इसलिए भारतीय संस्कृति के मूल सूत्रधार हैं राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध और गाँधी। अतः इस संस्कृति का लक्ष्य है सान्त से अनन्त की ओर जाना, अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना भेद से अभेद की ओर जाना, कीचड़ से कमल की ओर जाना और विरोध से विवेक की ओर जाना।
आज हम संस्कृति के नाम पर विकृति की ओर बढ़ रहे हैं। भाषावाद, प्रान्तवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद से देश की स्थिति दिन-प्रतिदिन विषम होती चली जा रही है। आवश्यकता है विषमता के स्थान पर समता की संस्थापना की जाय। जैन श्रमण भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर इसी का सन्देश देता है। प्रभृति अनेक विषयों पर गम्भीर विचार-चर्चाएँ लगभग डेढ़ घण्टे तक होती रहीं। वे गुरुदेव श्री के चिन्तनपूर्ण विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए। गुरुदेव और चन्दनमल वैद
श्रद्धेय सद्गुरुवर्य का सन् १९७३ में अजमेर में वर्षावास था। वहाँ पर १३ सितम्बर को विश्व मैत्री दिवस का भव्य आयोजन था। उसमें राजस्थान के तत्कालीन शिक्षा एवं वित्त मंत्री चन्दनमलजी वैद विशेष रूप से उपस्थित हुए थे । विश्वमैत्री की पृष्ठभूमि पर चिन्तन करते हुए सद्गुरुदेव ने कहा-दर्शन सत्य ध्रव है, कालिक है । मानव समाज की कुछ समस्यायें बनती हैं और मिटती हैं। किन्तु कुछ समस्याएँ मौलिक होती हैं। जो मौलिक समस्याएँ हैं उन्हीं से अन्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। दर्शन उन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। विश्व की सबसे बड़ी समस्या विषमता है । उसका मूल कारण है समत्व की दृष्टि का अविकास। भगवान महावीर ने आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व जो साम्य का स्वर मुखरित किया था वह वर्तमान में अत्यन्त मननीय है। सूत्रकृतांग में भगवान ने कहा कि प्रत्येक दार्शनिकों से मैं यह प्रश्न करता हूँ कि तुम्हें सुख अप्रिय है या दुःख अप्रिय है। यदि तुम यह कहते हो कि दुःख अप्रिय है तो तुम्हारे ही समान सभी भूतों को, सभी प्राणियों को, सभी जीवों को, दुःख अप्रिय है। जैसे तुम्हें कोई ताड़ना-तर्जना देता है तो तुम भयभीत होते हो, तुम्हें दुःख होता है। वैसे ही अन्य प्राणियों को भी संक्लेश होता है। अतः तुम्हें उन्हें परिताप देना नहीं चाहिए।
प्रस्तुत साम्य दर्शन के पीछे विराट और उदात्त भावना रही हुई है जिससे समाज अधिक समृद्ध बनता है। अहिंसा का मानसिक, वाचिक और कायिक तथा सामाजिक साम्य साधना का व्यवस्थित रूप दिया है, वह बड़ा ही अद्भुत हैं, अनूठा है। बाह्य दृष्टि से भेद होने के बावजूद भी सभी जीवों का आन्तरिक जगत् एक सदृश है। जिसने एक आत्म-तत्त्व को जान लिया है उसने विश्व के सभी तत्त्वों को जान लिया है। "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ" "एकस्मिन् विज्ञाते सति सर्व विज्ञातं भवति" का यही हार्द है। आज आवश्यकता है समत्व भाव के विकसित करने की। जैन धर्म ने अहिंसा और अनेकान्त दृष्टि से उसी भाव को विकसित करने का प्रयास किया है। यदि विश्व के चिन्तक इन महनीय सिद्धान्तों को अपना लें तो विश्व मैत्री होने में किंचित् मात्र भी विलम्ब नहीं हो सकता।
इसके पश्चात् गुरुदेव श्री ने उनसे धार्मिक शिक्षा, और राजस्थान में बढ़ते हुए मत्स्योद्योग, शराब आदि जो भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल है उन पर नियन्त्रण आवश्यक है, इस बात पर बल दिया । जहाँ तक दुर्गुणों से न बचा जायगा वहाँ तक राष्ट्र समृद्धि के पथ पर नहीं बढ़ सकेगा। अन्त में उन्होंने गुरुदेव श्री के मौलिक विचारों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए प्रसन्नता के साथ बिदा ली। गुरुदेव श्री और डी. पी. यादव
गुरुदेव श्री का सन् १९७१ में बम्बई कान्दावाड़ी में वर्षावास था । केन्द्रीय मन्त्री श्री डी. पी. यादव उपस्थित हुए। उस समय बिहार राज्य विषम दुर्भिक्ष से ग्रस्त था । पीड़ित बिहारी बन्धुओं के सहायतार्थ वे आये हुए थे। प्रवचन चल रहा था। गुरुदेव श्री ने भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा का विश्लेषण करते हुए कहा-भारतीय संस्कृति का मूल आधार है-दया, दान और दमन । प्राणियों के प्रति दया करो, मुक्त भाव से दान करो और अपने मन के विकल्पों का दमन करो । जब मानव को क्रूरता से शांति नहीं मिली, तब दया की स्रोतस्विनी प्रवाहित हुई । जब मानव को संग्रह से शान्ति नहीं मिली तब दान की निर्मल भावना प्रस्फुटित हुई। जब भोग से मानव को चैन नहीं मिला तब इन्द्रिय-दमन आया । विकृत जीवन को सुसंस्कृत बनाने के लिए दया, दान और दमन की आवश्यकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org