Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१६६
किन्तु आपसे मिलकर अनेक भ्रान्त धारणाओं का निरसन हो गया। आपश्री का यह वार्तालाप दो संस्कृतियों के समन्वय की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा । वस्तुतः मिलन और सम्मिलन से पूर्वाग्रह से उत्पन्न भ्रान्त धारणाओं का निरसन हो जाता है और एक दूसरे को समझने का प्रयास किया जाता है।
गुरुदेव और जैनेन्द्रकुमार सन् १९६७ का गुरुदेव श्री का वर्षावास बालकेश्वर, बम्बई में था। उस समय मूर्धन्य साहित्यकार श्री जैनेन्द्रकुमारजी गुरुदेव श्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुए। वार्तालाप के प्रसंग में जैन मनोविज्ञान पर चिन्तन करते हुए सद्गुरुदेव ने कहा-जैन मनोविज्ञान आत्मा, कर्म और नो-कर्म की त्रिपुटी पर आधारित है । जैनदृष्टि से मन एक स्वतन्त्र पदार्थ या गुण नहीं, अपितु आत्मा का ही एक विशेष गुण है । मन की प्रवृत्ति सर्वतन्त्र स्वतन्त्र नहीं, अपितु कर्म और नो-कर्म की स्थिति की अपेक्षा से है। जब तक हम इनका स्वरूप नहीं समझेंगे वहाँ तक मन का स्वरूप समझा नहीं जा सकता।
आत्मा चैतन्य, लक्षणवाला है। वह संख्या की दृष्टि से अनन्त है। उन सभी आत्माओं की सत्ता स्वतन्त्र है। संसार में जितनी भी आत्माएँ हैं वे अन्य आत्मा या परमात्मा का अंश नहीं । इस विराट विश्व में जितनी ही आत्माएँ हैं उनमें चेतना अनन्त हैं। वे अनन्त प्रमेयों को जानने में समर्थ हैं। चैतन्यस्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं, पर चेतना का विकास सभी आत्मा में समान नहीं होता। उस चैतन्य विकास का जो तारतम्य है उसका मूल निमित्त कर्म है। ... कर्म पुद्गल है, जो आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट होकर उसके साथ एकमेक हो जाते हैं । कर्म आत्मा के
NA INITION निमित्त से होने वाला एक प्रकार का पुद्गल परिणाम है । जैसे आहार, औषध, जहर, मदिरा प्रभृति पोद्गलिक पदार्थ परिपाक दशा में प्राणियों को अपने प्रभाव से प्रभावित करते हैं उसी तरह कर्म भी परिपाक दशा में प्राणियों को प्रभावित करता है । आहार आदि का परमाणु-प्रचय स्थूल होने से उसमें सामर्थ्य कम होता है किन्तु कर्म का परमाणुप्रचय सूक्ष्म होने से उसमें सामर्थ्य की अधिकता होती है । आहारादि ग्रहण करने की प्रवृत्ति स्थूल है, अतः उसका स्पष्ट परिज्ञान होता है, किन्तु कर्म ग्रहण करने की प्रवृत्ति सूक्ष्म होने से उसका स्पष्ट परिज्ञान नहीं होता । जैसे आहारादि के परिणामों को जानने के लिए शरीर शास्त्र है, वैसे ही कर्म के परिणामों को जानने के लिए कर्मशास्त्र है । जैसे आहारादि का प्रत्यक्ष प्रभाव शरीर पर होता है और परोक्ष प्रभाव आत्मा पर, उसी तरह कर्म का प्रत्यक्ष प्रभाव आत्मा पर और परोक्ष प्रभाव शरीर पर होता है । पथ्य-आहारादि से शरीर का उपचय होता है अपथ्य आहारादि से अपचय होता है और दोनों प्रकार का आहार न मिलने पर मृत्यु होती है वैसे ही पुण्य से आत्मा को सुख, पाप से दुःख और पुण्य-पाप दोनों के नष्ट होने पर मुक्ति मिलती है।
कर्मविपाक की जो सहायक सामग्री है वह नो-कर्म है। यदि हम कर्म को आन्तरिक परिस्थिति कहें तो नोकर्म को बाह्य परिस्थिति कह सकते हैं । कर्म प्राणियों को फल देने में समर्थ है, पर उसकी समर्थता के साथ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अवस्था, भवजन्म, पुद्गल, पुद्गल-परिणाम प्रभृति बाह्य परिस्थितियों की भी अपेक्षा है।
आत्मा सूर्य के समान प्रकाशित है। किन्तु उसके दो रूप हैं, एक आवृत्त है दूसरा अनावृत्त है । आवृत्त चेतना के अनेक भेद-अभेद हैं । किन्तु अनावृत्त चेतना का एक ही प्रकार है।
शरीर और चेतना दोनों पृथक् हैं, किन्तु इनका अनादिकाल से सम्बन्ध है । चेतन से शरीर का निर्माण हुआ है। शरीर उसका अधिष्ठान है। अतः एक दूसरे पर पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। शरीर का निर्माण चेतन-विकास के आधार पर आधूत है। इन्द्रियां और मन जिस जीव के जितने विकसित होते हैं उतने ही ज्ञानतन्तु बनते हैं। वे ज्ञान-तन्तु ही इन्द्रियों और मानस-ज्ञान के साधन हैं। जहाँ तक वे ज्ञान-तन्तु स्वस्थ रहते हैं तब तक इन्द्रियाँ स्वस्थ रहती हैं । यदि ज्ञानतन्तुओं को शरीर से पृथक् कर दिया जाय तो इन्द्रियों में जानने की शक्ति नहीं रह सकती।
जैन दृष्टि से मन दो तरह का है-एक चेतन और दूसरा पौद्गलिक । पौद्गलिक मन चेतन मन का सहयोगी है। उसके बिना चेतन मन कार्य करने में अक्षम है। चेतन मन को ही ज्ञानात्मक मन भी कहा गया है । चेतन मन पौद्गलिक परमाणुओं से नहीं बनता और न उसका रस ही है । चेतना आत्मा का गुण है । आत्मा-शून्य शरीर में चेतना नहीं होती और शरीरशून्य आत्मा की चेतना हम देख नहीं सकते। हमें शरीरयुक्त आस्मा की चेतना का ही परिज्ञान होता है।
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