Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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तृतीय खण्ड : गुरुदेव को साहित्य धारा
१६५
आहार जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक है, बिना आहार के न ज्ञान हो सकता है, न ध्यान हो सकता है और न प्रचार ही हो सकता है। कवि ने इसी तथ्य को अपनी भाषा में इस प्रकार व्यक्त किया है
श्रम स्वाध्याय नहीं हो पाते, मिलता जब आहार नहीं । जब आहार नहीं मिलता तब, होता पाद-विहार नहीं। होता पाद विहार नहीं जब, होता धर्म प्रचार नहीं। होता धर्म प्रचार नहीं तब, रहता एक विचार नहीं । रहता एक विचार नहीं तब, आस्थाएँ मर जाती हैं।
शक्ति बिखर जाती संघों को, प्रभावना गिर जाती हैं । प्रभावक व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए कवि ने जो शब्द चित्र प्रस्तुत किया है वह बड़ा अद्भुत है। देखिए
उन्नत मस्तक, दीर्घ भुजाएँ भव्य ललाट हृदय बलवान । मात्र तेज के साथ रूप ने, बना रखा था अपना स्थान ॥ चौड़ी छाती स्कंध सुदृढ़ थे, नेत्र विशाल सुरंग विशेष ।
रंग गेहुँआ होता ही है, आकर्षण का केन्द्र हमेश ।। भारतीय संस्कृति में अतिथि को देव-स्वरूप माना है। "अतिथि देवो भव" यहाँ का मूल स्वर है। जब अतिथि घर पर आये तब गृह-मालिक का कर्तव्य है कि वह उसका स्वागत करे। देखिये कवि ने इसी बात को इस रूप में प्रस्तुत किया है
रोटी और दाल से बढ़कर, भोजन क्या हो सकता है ? आया हुआ अतिथि अपने घर, क्या भूखा सो सकता है ? आश्रय दो, दो भोजन पानी, अपनापन दो, दो सत्कार ।
आते अतिथि न अर्थ माँगने, नहीं व्यर्थ का ढोवो भार । सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान की संक्षेप में कवि ने बहुत सुन्दर परिभाषा प्रस्तुत की है। कवि लिखता है
व्रव्य त्याग से है बड़ा, देह राग का त्याग । होता ही है जीव का, देहाश्रित अनुराग ।। यह मैं, मैं यह इस तरह, लेता है मन - मान । यहो बड़ा मिथ्यात्व है, यही बड़ा अज्ञान ।। बेह भिन्न मैं भिन्न हूं, जब लेता मन मान ।
सम्यकदर्शन है यही, है यह सम्यक्ज्ञान ॥" साधक को उद्बोधन देते हुए कवि ने कहा कि जिनशासन के लिए तुम्हें न्योछावर हो जाना चाहिए। जब तक तुम जिनशासन के प्रति सर्वात्मना समर्पित नहीं होगे तब तक जिनशासन की सच्ची समुन्नति नहीं हो सकती। देखिए
जिनशासन के लिए आप भी, जीवन-दान करो अपना । अगर कभी देखा हो जो कुछ, वह तो सही करो सपना । सुत दो, कन्याएं दो, धन दो और समय दो, सेवा दो।
श्री जिनशासन अपना शासन, समझ प्रेम का मेवा लो।" दान धर्म का प्रवेश द्वार है। दान की महत्ता पर चिन्तन करते हुए कवि ने लिखा है कि दुभिक्ष के समय उदारता के साथ दान दो । उस समय पात्रापात्र का विचार न करो, क्योंकि जो व्यथित है उसे देना ही तुम्हारा संलक्ष्य होना चाहिए। देखिए
पात्रापात्र विचार को, यहाँ नहीं अवकाश । देता है आदित्य भी, सब को स्वीय प्रकाश ।। जो प्राणों का पात्र है, वह दानों का पात्र । जो पढ़ने में तेज है, वही श्रेष्ठतम छात्र ॥
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