Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
साधना की दृष्टि से साधक को निरन्तर साधना करनी चाहिए। उसे किसी प्रकार के चमत्कार की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए और न चमत्कार प्रदर्शन ही करना चाहिए। कवि चमत्कार प्रदर्शन का निषेध करता हुआ कहता है
चमत्कार है ब्रह्मचर्य तप, चमत्कार है व्रत-संयम । चमत्कार दिखलाने वाला, चमत्कार को करता कम । चमत्कार दिख जाया करता, दिखलाने का करो न मन ।
विद्युत चमत्कार दिखलाकर, शीघ्र छुपाती अपना तन ।। दुष्ट व्यक्ति चाहे कैसा भी संयोग मिले, पर वह अपनी वृत्ति को नहीं छोड़ता। वह शिष्ट के साथ भी दुष्ट प्रवृत्ति करने में नहीं चूकता । कवि ने दुष्ट मानव की प्रकृति का चित्रण करते हुए लिखा है
नहीं छोड़ता दुष्ट दुष्टता, उसका ऐसा बना स्वभाव । गिरि-शिखरों पर सड़कों में ज्यों, पाये जाते बड़े घुमाव । मोर मधुर बोला करता है, अहि को किन्तु निगल जाता। मले नली में डालो पर क्या, श्वान-पृच्छ का बल जाता? तलो तेल में भले महल में, गन्ध प्याज की कब जाती?
मार्जारी के मन में मूषक-गण पर क्या नहीं आती। ___ काव्यों के भाषा-सौष्ठव तथा उक्ति वैचित्य का एक उदाहरण देखिए-दिल्ली का वर्णन करते हुए आपश्री ने लिखा है
कालिन्दी के काले जल ने, जिसको किया नहीं काला । क्यों न निराला होगा, उसका सुष्ठ स्वरूप बड़ा आला । केवल यमुना का जल काला, कालापन पुर में न कहीं।
अथवा कालापन केशों में, कालापन उर में न कहीं॥ आर्य वजस्वामी के पवित्र चरित्र में दीक्षा का वर्णन करते हुए जो अनुप्रास सहजरूप से उपयुक्त हुए हैं वे प्रेक्षणीय हैं
वीक्षा शिक्षा गुरु से पाई, मिक्षा पाई लोगों से।
पूर्ण तितिक्षा पाई मुनि ने, निज अनुभूत प्रयोगों से ॥२ युवक अमरसिंह ने संसार की स्थिति का चित्रण करते हुए अपनी मातेश्वरी से कहा कि संसार में प्रत्येक जीव के साथ अनन्त बार सम्बन्ध हो चुका है, फिर बिछुड़ने और मिलने पर शोक और आनन्द किस बात का । कवि ने इसीको अपने शब्दों में व्यक्त किया है
ऐसा जीव नहीं है जग में, जिससे जुड़ा न हो सम्बन्ध ।
मिलने और बिछुड़ने पर फिर, कैसा शोक तथा आनन्द ।। जैन सन्त की परिभाषा आपश्री ने इस प्रकार की है
महावतों की कठिन साधना, नव निधि से जीवन पर्यन्त । करने वाले महापुरुष को, माना जाता जैनी सन्त ।।
समता सहित रहित ममता से, विहरण करना भूतल पर।
नहीं किसी के बल पर जीना, जीना है अपने बल पर ।। आचार्य अमरसिंह जी का वर्णन करते हुए अनुप्रासों की उत्पन्न छटा दर्शनीय है
उत्तम आकृति उत्तम व्याकृति, उत्तम व्यवहृति मति उत्तम ।
उत्तम उपकृति धृति अति उत्तम, उत्तम व्यापृति गति उत्तम । १ ज्योतिर्धर जैनाचार्य पृष्ठ ४ २ विमल विभूतियां पृष्ठ ११६
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