Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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तृतीय खण्ड गुरुदेव की साहित्य धारा
उक्त काव्य को इस रूप में प्रतिष्ठित करने की मुनिश्री जी की आन्तरिक इच्छा अधिक समय पूर्व से ही घर कर चुकी थी । किन्तु विहार और मुनिधर्म की पालना के साथ, यह कार्य मूर्त रूप धारण नहीं कर पा रहा था, रायचूर (कर्णाटक) के वर्षावास के समय यह काव्य मूर्त रूप धारण कर सका ।
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काव्य कथावस्तु श्वेताम्बर स्थानकवासी करुणामूर्ति जंनमुनियों के इतिहास से सम्बद्ध है। क्योंकि आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज द्वाविंशसम्प्रदाय के आचार्यों में से एक आचार्य थे और ये मुनिश्रीजी के आद्य आचार्य हैं। अतः मुनिश्रीजी ने काव्य के नायक के रूप में धीर-वीर और उदात्तगुणविशिष्ट होने के कारण आद्य आचार्यश्री का चयन कर काव्य के निर्धारित नियम का भी अक्षरश: पालन कर दिखाया है। उनके उदात्त गुण और धैर्य का सजीव वर्णन कर मुनिश्रीजी ने सोने में सुगन्ध महका दी है।
वस्तुत: यह घटना प्रधान काव्य है और सुखान्त की श्रेणी में भी परिगण्य हो सकता है, यद्यपि सुखान्त और दुःखान्त नाटक के प्रकरण की बात है। काव्य सर्गों में उपनिबद्ध होना आवश्यक है । अतः इसको त्रयोदश सर्गों में विभक्त किया है। इन सब से ऐसा लगता है कि मुनिश्रीजी ने साहित्याचार्यों के निश्चय का यथासम्भव पालन कर इस काव्य के स्वरूप को उचित दिशा में प्रतिष्ठित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है। यह बात दूसरी है कि सर्गों के आकार-प्रकार कुछ मर्यादा से टकराते हैं । किन्तु विषयसामग्री को देखते हुए यह ढंग भी निर्वाह्य प्रतीत होता है एवं कवि-कर्त्तव्य को निभाने का एक सुन्दर प्रयास-सा लगता है ।
इस काव्य को महाकाव्य की कोटि में परिगणित किया जा सकता है कि नही, इस विषय में भले ही विवाद हो सकता है, किन्तु काव्य की प्रतिष्ठा को मुनिश्रीजी ने जिस युक्ति से निर्वाहित किया है, यह कुछ कम प्रशंसा की बात नहीं है । देखा जाए तो आज के समय में एक संस्कृत के काव्य की रचना स्वयं में कुछ कम स्तुत्य नहीं हैं ।
इस काव्य में प्रयुक्त वृत्तों का जहाँ तक प्रश्न है, उत्तर में कहा जा सकता है कि मन्दाक्रान्ता, शालविक्रीडित वसन्ततिलका, वंशस्थ और उपेन्द्रवखा आदि ही प्रमुख रूप में प्रयुक्त हुए हैं होने के लिये और भी वृत्त प्रयुक्त हैं, किन्तु नाम गिनाने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। अतः जानबूझ कर हम उसकी उपेक्षा कर रहे हैं । किन्तु वृत्तों के नियम- पालन में मुनिश्रीजी को निरपवाद ही कहा जायेगा। क्योंकि काव्य के आदि से अन्त तक देखने पर भी यतिभङ्ग जसा दोष नहीं मिलता। इस सब के देखने से यह बात तो सहज में समझी जा सकती है कि वृत्त-वर्णन का काठिन्य निधीजी के लिये कोई अस्तित्व नहीं रखता। कहने का अभिप्राय यही है कि मुनिधीजी के लिये सभी वृत्त एक-से हैं ।
सर्वाधिक महत्त्व की बात यह है कि मुनिश्रीजी को पादपूर्ति के कष्ट ने कभी कोई शातना नहीं दी । अपितु और अर्थ के 'च' शब्द तक का अध्याहार करना पड़ता है। इसका अभिप्राय यह नहीं समझना चाहिये कि काव्य में 'च' शब्द का उपयोग ही नहीं लिया। वास्तव में वाक्य योजना में जहाँ परमावश्यक है, उस स्थान पर उसका उपयोग अवश्य किया है, अन्यथा नहीं ।
मुनिश्रीजी की भाषा सीमित एवं सरल है, किन्तु व्याकरणसम्मत है । अर्थ के लिये शब्द के उपयोग करने की प्रवृत्ति का जसा सुन्दर ढंग आपश्री के काव्य में दिखता है, वैसा अन्यत्र सहसा सुलभ नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि घुमा-फिरा कर कहने की आपकी शैली नहीं है। इससे अर्थप्रतीति शीघ्रता से होती है । अतः दुरूहार्थता नाममात्र के लिये उपलब्ध नहीं होती । यह भी एक उपादेय गुण है। किन्तु दूरान्वयिता अवश्य है, इसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। किन्तु सहृदय कविजन 'एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः । के न्याय से इसे सह सकेंगे ।
पुनरपि संस्कृत-व्याकरण के नियम बड़े जटिल हैं। उन नियमों से यशस्वी महाकवि भी अछूते नहीं बच सके । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं समझ लेना चाहिये कि उन्होंने जानते हुए व्याकरण के नियमों की कोई उपेक्षा की है, स्वाभाविकरूप में उपेक्षा बन पड़ी है। उसके साथ ही यह मानना पड़ता है कि जटिल होने पर भी व्याकरण के नियम बड़े उपकारक भी हैं। क्योंकि यह व्याकरण उन उपेक्षाओं की प्रकारान्तर से समाहिति भी प्रस्तुत कर देता है, अर्थात् वे भी व्याकरण-सम्मत हो जाते हैं ।
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इतने पर भी कवि के प्राशस्त्य में व्याकरण के नियमों का निर्वाह भी संगृहीत है । इस दृष्टि से यदि विचार किया जाए तो यह काव्य, एक स्तरगत काव्य हो, ऐसा जान पड़ता है। किन्तु किन्तु की कुटिलता से कौन बचा है और बच सकता है। अतः एव गणव्यतिरेक और पद की प्रतिष्ठा नहीं बच सकी है। तथापि प्रजातन्त्र की पद्धति के समान कवितन्त्र में भी बहुमत का आदर होता है । इसलिये जो निर्वाचित हो गया, हो गया । तदनुसार गण और पद
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