Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२१४
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
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श्री पुष्करमुनि जी का
जैन कथा-साहित्य एक आलोचनात्मक दृष्टि
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श्रद्धय श्री पुष्कर मुनिजी ने जैन कथा साहित्य में १ एक यूग प्रवर्तन किया है। जैन साहित्य का कथा भण्डार जैन कथा वाङमय का कायाकल्प विश्व के समस्त साहित्य में अद्भुत और अपारंगम है। जैनाचार्यों ने हजारों-हजार पौराणिक, अर्ध-ऐतिहासिक तथा लोक-कथाओं को अपने साहित्य में संजोकर सुरक्षित रखा है । गुरुदेवश्री ने उस समस्त कथा-साहित्य को जो, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश, गुजराती, राजस्थानी आदि
भाषाओं में गद्य-पद्य रूप में प्राप्त है, राष्ट्र भाषा हिन्दी में ६ जन-जन के लिए सुलभ करने का संकल्प किया है। 'जैन 6 कथाएं' नाम से अब तक लगभग चालीस भाग छप गये हैं,
और एक सौ आठ भागों में यह माला पूर्ण करने का दृढ़ है संकल्प है।
जैन कथा साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान तथा प्रसिद्ध प्रो० श्रीचन्द्र जैन M.A.,LL.B. (उज्जैन) 4 समीक्षा लेखक प्रा. श्रीचन्द्र जैन ने यहाँ पर गुरुदेव श्री के ६ २५ कथा भागों पर तटस्थ आलोचनात्मक विश्लेषण ३ प्रस्तुत किया है।
-संपादक h-o--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-10--0--S
श्री पुष्कर मुनि जी द्वारा लिखित जैन कथा-साहित्य आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद का एक अविकल चित्र है। इसमें मानव-जीवन की उदात्तानुदात्त प्रवृत्तियों का लेखा है तथा कषाय-जनित कल्मष के परिमार्जन की विविध-विधियाँ वर्णित हैं। राजा-रानी, लोक, सामान्य परिजन तथा आर्य-अनार्यों के द्वारा उपलब्ध सत्ता-महत्ता की भी युगान्तकारी करवटें इन कथाओं में जीवन्तता की तूलिका से चित्रित हुई हैं । इस जैन-कथा-साहित्य के तीस भाग कई शताब्दियों की उज्वलता तथा श्यामता के सहज रूप हैं जिनमें यातना के साथ चीत्कार के भी वीभत्स स्वर ध्वनित हैं । गन्तव्य यहाँ निश्चित है फिर भी उसकी उपलब्धि के लिए अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनिजी ने जो साधन बताये हैं वे कठोर अवश्य हैं, लेकिन कथा-माध्यम से वे बड़े रोचक और मृदुल बन गये हैं। यक्षों की लीलाओं में सामाजिक, धार्मिक ऐतिहासिक तथ्यों का सान्निध्य है और न्यायव्यवस्था की दृढ़ता के सामने अमीर-गरीब का भेद नहीं है । समुद्र यात्रा के साहसिक कार्य, शुभाशुभ कर्मों की चर्चा, स्वप्न-दर्शन, विक्रमादित्य की परम्परा, सौन्दर्य-बोध के मापदण्ड अभिप्रायों की छटा, नागजपूजा का आरम्भ, ज्योतिष विद्या के साथ विविध कलाओं की परिगणना, नर-नारी का उत्तरदायित्व, उज्जयनी की समृद्धि आदि के साथ ये कहानियाँ धार्मिकता से निरन्तर सम्बद्ध हैं । भाषा-सौष्ठव की प्रांजलता व्यापक एवं उदार चिन्तन को अपरिमित आलोक देती है। यथावसर करुणा भी विक्षिप्त होने लगती है, फिर भी मानवता अपने पैरों को सन्मार्ग से पीछे नहीं हटने देती । सत्ता-महत्ता के घटाटोप में जीने वाला इन्सान जब प्रतिशोध की भावना से दुर्दान्त दानव के रूप में अट्टहास करने लगता है तब मुनिश्री की ये कथाएँ उसे इतना शान्त कर देती हैं कि उसे पश्चात्ताप की आग में जलना पड़ता है और उसका मन शांत हो जाता है। उपदेश का धार्मिक आवरण जैन कथा-साहित्य को सर्वदा सर्वत्र आवृत्त किये हुए है। यहाँ यह उल्लेख है कि आसुरी कुटिलता, सदुपदेशों से पावनता में परिवर्तित हुई है। असुर सुर बनते हैं और दानव मानवता के औदार्य से सुशोभित हो उठते हैं। अमीर-गरीब की खाई को पाटने का यहां सफल प्रयास चित्रित है और लोक-जीवन की वरेण्य महत्ता पग-पग पर ताजगी से चाही गई है। सुभाषितों को सौरभ से प्रत्येक कथा सुरभित है।
श्री रामसिंह तोमर एम. ए. अपने निबन्ध-"जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य का देन" में लिखते हैं, 'जैन साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसे धार्मिक आवरण से छुटकारा कभी नहीं मिल सका। जन कवियों या लेखकों का कार्य बहुत ही कठिन था । धार्मिक दृष्टिकोण भुलाना उनके लिए मुश्किल था। यह प्रतिबन्ध होते हुए भी उचित अवसर आते ही जैन कवि अपना काव्य-कौशल प्रकट किये बिना नहीं रहते और ऐसे स्थलों पर हमें एक अत्यन्त उच्चकोटि के सरल और सरस काव्य के दर्शन होते हैं, जिसकी समता हम अच्छे-से-अच्छे कवि की रचना से कर सकते हैं । काव्य के सामान्य तत्त्वों के अतिरिक्त इन कवियों के काव्य की विशेषता यह है कि लोकरुचि के अनुकूल बनाने के लिए इन कवियों ने अपने काव्य को सामाजिक जीवन के अधिक निकट लाने का प्रयत्न किया है । सरलता और सरसता को एक साथ प्रस्तुत करने का जैसा सफल प्रयास इन कवियों ने किया, वैसा अन्यत्र कम प्राप्त होगा।"............ जनता की भाषा में रचना करके लोक-भाषा को काव्य का माध्यम बनाने का श्रेय प्रधानतः इन्हीं जैन कवियों को है।
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