Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
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मानव परिवार ही नहीं किन्तु समग्र विश्व की सुरक्षा के लिए अहिंसा की जितनी आवश्यकता है उतनी पहले कभी नहीं रही । अहिंसा मानव जीवन के लिए मंगलमय वरदान है। अहिंसा वाद-विवाद का नहीं, आचरण का सिद्धान्त है, तर्क का नहीं, अपितु व्यवहार का सिद्धान्त है । विचारात्मक या बौद्धिक अहिंसा ही अनेकान्त है । और अनेकान्त दृष्टि को जिस भाषा के माध्यम से व्यक्त किया जाता है वह स्याद्वाद है। अनेकान्तवाद एक दृष्टि है और स्याद्वाद उस दृष्टि को अभिव्यक्त करने की एक पद्धति है। यों कहा जा सकता है विचारों का अनाग्रह ही अनेकान्तवाद है । जब अनेकान्त वाणी का रूप ग्रहण करता है तब स्याद्वाद बनता है और जब आचार का रूप लेता है तो अहिंसा बनती है। अहिंसा और अनेकान्त एक दूसरे के पूरक हैं। अहिंसा और अनेकान्त के सम्बन्ध में जैनाचार्यों ने अत्यन्त विस्तार के साथ लिखा है। किन्तु आज आवश्यकता है, उसे जीवन में अपनाने की। अहिंसा और अनेकान्तवाद के केवल गीत गाने से लाभ नहीं। किन्तु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसका उपयोग करने में ही लाभ है। अहिंसा और अनेकान्त में वह अपूर्व शक्ति है जो हमारे जीवन के कालुष्य और मालिन्य को दूर कर जीवन को चमका सकती है।
. इस प्रकार गुरुदेव श्री के मौलिक विचारों को सुनकर पन्त जी प्रभावित हुए और कहा-जैनदर्शन की अहिंसा और अनेकान्त भारतीय दर्शन की अपूर्व देन है।
गुरुदेव और राजर्षी टण्डन जी श्रद्धय गुरुवर्य सन् १९५४ में देहली में वर्षावास हेतु विराज रहे थे । उस समय राजर्षी टण्डन गुरुदेव श्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुए। औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् धर्म और दर्शन पर विचार-चर्चा प्रारम्भ हुई। गुरुदेव श्री ने बताया-धर्म का मानव जीवन में व्यापक और महत्वपूर्ण स्थान है। धर्म का सम्बन्ध आचार से है और दर्शन का सम्बन्ध विचार से। भारतीय संस्कृति में आचार और विचार को एक माना है। वे एक दूसरे के पूरक हैं । आचाररहित विचार विकार है और विचार रहित आचार अनाचार है। पाश्चात्य विचारकों के अभिमतानुसार रिलिजन और फिलासफी ये दोनों पृथक्-पृथक हैं। किन्तु भारतीय चिन्तन की दृष्टि से धर्म और दर्शन दोनों अन्योन्याश्रित हैं। ये दो तट हैं जिनके मध्य मानव जीवन की सरिता प्रवाहित होती रहती है। किन्तु दोनों के आधार भिन्न-भिन्न हैं। धर्म श्रद्धा पर आधारित है तो दर्शन तर्क पर। किन्तु तर्क धर्म के मार्ग में और श्रद्धा दर्शन के मार्ग में कभी भी व्यवधान पैदा नही करती।
गुरुदेव श्री ने विषय को स्पष्ट करते हुए कहा-वेदान्त में जो पूर्वमीमांसा है, वह धर्म है और उत्तरमीमांसा दर्शन है। योग आचार है तो सांख्य विचार है। बौद्ध-परम्परा में हीनयान दर्शन है तो महायान धर्म है। उसी तरह जैन धर्म में भी अहिंसा धर्म है और अनेकान्त दर्शन है। विचार में आचार और आचार में विचार भारतीय दर्शन का यही मौलिक चिन्तन है।
आपश्री ने वार्तालाप के प्रसंग में ही उनका ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण हमारे यहाँ भी धर्म और दर्शन को प्रतिद्वन्द्वी के रूप में माना जा रहा है। यह चिन्तन भारतीय दर्शनों के अनुकूल नहीं है। उससे लाभ नहीं अपितु हानि ही अधिक है। अतः इस दृष्टि से विचारों के परिष्कार करने की आवश्यकता है।
गुरुवेव और श्री सुखाड़िया जी सद्गुरुदेव से श्री मोहनलाल जी सुखाड़िया जो राजस्थान के तत्कालीन मुख्य मन्त्री थे, वे अनेकों बार मिले। सर्वप्रथम वे सन् १९६४ में अजमेर शिखर सम्मेलन के अवसर पर मिले, दूसरी बार सन् १९६६ में उदयपुर के सन्निकट तिरपाल गाँव में मिले । और लम्बे समय तक आध्यात्मिक और सामाजिक विषयों पर चर्चा की। उसके पश्चात् दिनांक ७-१०-१९७६ को रायचूर (कर्नाटक) में गुरुदेव की ६७वीं जन्मजयन्ती के अवसर पर उपस्थित हुए थे। उस समय वे तमिलनाडु के राज्यपाल थे। प्रारम्भिक वार्तालाप के पश्चात् गुरुदेव श्री ने भारतीय संस्कृति पर चिन्तन करते हुए कहा-भारतीय संस्कृति वह है जिसमें आचार की पवित्रता, विचार की गम्भीरता और कला की सुन्दरता है। संस्कृति में धर्म भी है, दर्शन भी है और कला भी है। संस्कृति बहती हुई धारा है जो निरन्तर विकास की ओर बढ़ती है। संस्कृति विचार, आदर्श भावना एवं संस्कार प्रवाह का वह सुगठित सुस्थिर संस्थान है जो मानव को अपने पूर्वजों से सहज अधिगत होता है। संस्कृति मानव के भूत, वर्तमान और भावी जीवन का सर्वांगीण चित्रण है, जीवन जीने की कला और पद्धति है । संस्कृति अनन्त आकाश में नहीं, किन्तु धरती पर रहती है। वह कमनीय कल्पना में नहीं, जीवन का वास्तविक सत्य है, प्राणभूत तत्त्व है। मानवीय जीवों के नानाविध रूपों का समुदाय ही संस्कृति है। विविध प्रकार की धर्मसाधना, कलात्मक प्रयत्न, योगमूलक अनुभूति और तर्कमूलक कल्पना
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