Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१६३
गुरुदेव श्री के प्रभावपूर्ण प्रवचन से प्रभावित होकर साठ हजार से अधिक सम्पत्ति विपत्ति-ग्रस्तों को विपत्ति से मुक्त कराने के लिए प्रवचन में एकत्रित हो गयी। प्रवचन के पश्चात् भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर गुरुदेव श्री से उनकी विचर चर्चा हुई।
गुरुदेव और सरदार गुरुमुख निहालसिंह जुलाई १९७४ में पूज्य गुरुदेव श्री दिल्ली के चांदनी चौक जनस्थानक में विराज रहे थे। उस समय राजस्थान के भूतपूर्व राज्यपाल सरदार गुरुमुख निहालसिंह दर्शनार्थ प्रवचन सभा में उपस्थित रहे । गुरुदेव श्री ने अपने प्रवचन में अहिंसा का विश्लेषण करते हुए कहा-अहिंसा एक तीन वर्ण का छोटा-सा शब्द है। किन्तु यह विष्णु के तीन चरण से भी अधिक विराट व व्यापक है। मानव जाति ही नहीं किन्तु विश्व के सभी चराचर प्राणी इन तीन चरणों में समाये हुए हैं। जहाँ अहिंसा है वहाँ जीवन है, जहाँ अहिंसा का अभाव है वहाँ जीवन का अभाव है । अहिंसा का प्रादुर्भाव कब हुआ यह कहना कठिन है। जैनदर्शन की दृष्टि से प्राणी का अवतरण अनादि है । अत: अहिंसा को भी अनादि मानना चाहिए । अहिंसा एक विराट शक्ति है । मानव आदिकाल से जीवन के विविध पक्षों में उसके विविध प्रयोग करता रहा है । जिन परिस्थितियों में जिस तरह समाधान की आवश्यकता हुई वह समाधान अहिंसा ने दिया है ।
यह सत्य है, विश्व के जितने भी धर्म-दर्शन और सम्प्रदाय हैं उन सभी में अहिंसा के आदर्श को एक स्वर से स्वीकार किया है। सभी धर्म के प्रवर्तकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से अहिंसा तत्त्व की विवेचना की। तथापि जैसा अहिंसा का सूक्ष्म विश्लेषण और गहन विवेचन जैन साहित्य में उपलब्ध होता है वैसा अन्यत्र नहीं । जैन संस्कृति की प्रत्येक क्रिया अहिंसामूलक है। विचार में, उच्चार में; और आचार में सर्वत्र अहिंसा की सुमधुर झंकार है। महावीर ने कहा-जैसे जीवन का आधार स्थल पृथ्वी है वैसे ही भूत और भविष्य के ज्ञानियों के जीवन दर्शन का आधार अहिंसा है। महात्मा गान्धी ने "तलवार का असूल" शीर्षक निबन्ध में लिखा था-अहिंसा धर्म केवल ऋषि और महात्माओं के लिए ही नहीं, वह तो आम मानव के लिए है । अहिंसा हम मानवों की प्रकृति का कानून है। जिन ऋषियों ने अहिंसा का नियम निकाला वे न्यूटन से ज्यादा प्रभावशाली थे और वेलिंगटन से बड़े योद्धा थे।
अहिंसा जीवन का मधुर संगीत है। जब यह संगीत जीवन में झंकृत होता है तो मानव का मन आनन्दविभोर हो उठता है। अहिंसा दया का अक्षयकोश है। दया के अभाव में मानव, मानव न रहकर दानव बन जाता है। एक विचारक ने कहा है- दया के अभाव में मानव का जीवन प्रेत-सदृश है। सुप्रसिद्ध चिन्तक इंगरसोल ने लिखा है-जब दया का देवदूत दिल से दुतकार दिया जाता है और आँसुओं का फोवारा सूख जाता है तब मानव रेगिस्तान की रेत में रेंगते हुए साँप के समान बन जाता है। वस्तुतः अहिंसा एक महासरिता के समान है। जब वह साधक के जीवन में इठलाती और बल खाती हुई चलती है तब साधक का जीवन अत्यन्त रमणीय बन जाता है।
___अहिंसा केवल निषेधात्मक नहीं, किन्तु विधेयात्मक है। नहीं मारना, यह अहिंसा का नकारात्मक पहलू है और मैत्री, करुणा, सेवा, दया, आदि उसका विधेयात्मक पहलू है ।
प्रवचन में सद्गुरुदेव ने विविध धर्मों में अहिंसा के सम्बन्ध में जो चिन्तन किया गया है, उस पर भी प्रकाश डाला जिसे श्रवणकर सरदार गुरुमुख निहालसिंह जी अत्यन्त प्रभावित हुए । प्रवचन के पश्चात् अहिंसा विषय पर ही विचार-चर्चाएं हुई।
गुरुदेव और भाऊ साहब वर्तक - बम्बई के सन्निकट बिरार (महाराष्ट्र) में पूज्य गुरुदेव श्री विराज रहे थे । उस समय महाराष्ट्र के कृषि मन्त्री भाऊ साहब वर्तक पूज्य गुरुदेव श्री के निकट सम्पर्क में आये । गुरुदेव श्री ने अपरिग्रह व समाजवाद के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा-परिग्रह आत्मा के लिए सबसे बड़ा बन्धन है। परिग्रह के जाल में आबद्ध आत्मा विविध हिंसामय प्रवृत्तियाँ करता है । परिग्रह का अर्थ मूर्छाभाव है। पदार्थ के प्रति हृदय की आसक्ति व ममत्व की भावना ही परिग्रह है । परिग्रह को सभी धर्मों ने आत्म-पतन का मूल कारण माना है। परिग्रह की कड़ी आलोचना करते हुए बाइबल ने कहा-सूई की नोंक से ऊँट भले ही निकल जाय पर धनवान कभी स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि परिग्रह आसक्ति का मूल कारण है। भगवान महावीर ने रूपक की भाषा में बताया, परिग्रह रूपी वृक्ष के स्कन्ध, तने हैं लोभ, क्लेश और कषाय । चिन्तारूपी सैकड़ों सघन और विस्तीर्ण उसकी शाखाएँ हैं। जैनदर्शन की दृष्टि से भी महा आरम्भी और महापरिग्रही व्यक्ति नरक गति का अधिकारी है। महर्षी व्यास ने कहा-उदर पालन के लिए जो आवश्यक है वह व्यक्ति का अपना है, इससे अधिक जो व्यक्ति संग्रह करके रखता है वह चोर है और
है । एक विचारया का देवदूत दिल से दुत बन जाता है । वस्तुतः आजीवन
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