Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१५५
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और रजोहरण से रेखा खींचकर पण्डित जी से कहा-अब आपको कुछ भी कष्ट नहीं होगा । चाहे कैसा भी दानव क्यों न हो वह आपको कष्ट नहीं देगा।
पण्डित जी ने कहा-गुरुदेव, मैं अब एक तरफ नहीं सो सकता। अब दोनों सन्तों के बीच मुझे सुला दीजिए । गुरुदेव ने परिस्थिति पर विचार कर पण्डित जी को बीच में सुला दिया । गुरुदेव तो प्रतिदिन नियमानुसार दो बजे उठकर ध्यान में विराज गये । और पण्डित जी आराम से सोते रहे। सुबह विहार कर भडौंच जाना था। मकान की आज्ञा पुन: लौटाने के लिए ज्योंही उस मुसलमान भाई के वहाँ गये त्योंही वह आपको देखकर हैरान हो गया और बोला, क्या तुम लोग रात को जिन्दा रह गये? गुरुदेव ने मुसलमान भाई को समझाया कि इस तरह से दुष्टतापूर्ण व्यवहार करना उचित नहीं है । "अल्लाह अल्लाह खैरसल्लाह" हम तो बच गये । दूसरों के साथ कभी भी ऐसी मजाक मत करना । वह मुसलमान आपकी आध्यात्मिक शक्ति को देखकर चरणों में गिर पड़ा । उसने कहा- महाराज जी, उस मकान में जिन्द रहता है जो रात्रि में किसी को भी नहीं रहने देता । यदि कोई भूल से वहाँ रह जाय तो उसे वह खतम कर देता है । मैंने यही सोचा कि हिन्दू काफिर होते हैं और आपको मरवाने की भावना से ही मैंने आपको वह मकान बताया था। अब आश्चर्य है कि उस अद्भुत दानवी शक्ति से आप कैसे बच निकले । अब मुझे अपनी दृष्टता पर पश्चात्ताप हो रहा है कि मैंने एक सच्चे फकीर को कष्ट दिया । आप मेरे दुष्टतापूर्ण व्यवहार को क्षमा करें। भविष्य में कभी भी मैं ऐसा व्यवहार अन्य किसी भी व्यक्ति के साथ नहीं करूंगा।
सन् १९४८ की घटना है । पूज्य गुरुदेव घाटकोपर-बम्बई का वर्षावास पूर्ण कर नासिक संघ के अत्याग्रह को मान देकर आप नासिक पधारे । और वहाँ से सूरत की ओर प्रस्थान किया । सतपुड़ा की विकट पहाड़ियों के कण्टकाकीर्ण पथ को पार कर आप वासदा पधारे । वहाँ पर जैन मुनि २२ वर्षों के पश्चात् गये थे । अत: संघ में अपार उत्साहपूर्ण वातावरण था । आप वहाँ पर दो दिन विराजे । और वहाँ से नवसारी की ओर प्रस्थान किया । अपराह्न का समय था। पगडण्डियों के मार्ग से विहार यात्रा चल रही थी। सड़क नहीं थी। सामने से आनेवाले व्यक्ति से लक्ष्यस्थल के सम्बन्ध में पूछा, तो उसने कहा वह स्थान यहाँ से लगभग दो गाऊँ हैं । दो गाऊँ से तात्पर्य था चार मील का । गुरुदेव ने सोचा, चार मील तो अभी-अभी पहुँच जायेंगे । किन्तु चार मील जाने पर पुनः अन्य व्यक्ति से जिज्ञासा प्रस्तुत की तो उसने बताया चार मील है । कदम तेजी से बढ़ाये गये लक्ष्यस्थल तक पहुँचने के लिए। किन्तु चार मील चलने के बाद भी वही पुराना उत्तर मिला कि चार मील दूर है। द्रौपदी की चीर की तरह मार्ग लम्बा होता जाता था। बारह मील चलने पर भी रुकने का स्थान नहीं आया। तब आपश्री ने मुझे कहा-देवेन्द्र ! सूर्य अस्ताचल की ओर अपने कदम तेजी से बढ़ा रहा है। चारों ओर पहाड़ियाँ हैं। जिससे गाँव दिखायी नहीं दे रहे हैं। अब हम आगे नहीं बढ़ सकते । किसी वृक्ष के नीचे ही आज रात्रि को विश्राम लेना होगा। चारों ओर हराभरा वन था । पहाड़ियाँ थीं। और सन्निकट ही तापी नदी बह रही थी। जिससे कलकल-छलछल मधुर ध्वनि आ रही थी।
गुरुदेव श्री ने एक आम के वृक्ष के नीचे साथ में जो भाई था उसकी आज्ञा ग्रहण कर वहाँ आसन जमा दिया। सन्ध्या की सुहावनी लालिमा धीरे-धीरे अन्धकार में बदल रही थी। तभी दनादन पत्थर आने लगे । हमने देखा पत्थर टेकरी पर जो झोंपड़ियाँ थीं, उधर से ही पत्थर आ रहे थे। किन्तु कोई भी पत्थर आपको न लगा । ज्यों-ज्यों अन्धकार बढ़ने लगा त्यों-त्यों पत्थर आने बन्द हो गये । गुरुदेव ने कहा-आज का यह एकान्त शान्त स्थान जप-साधना के लिए बहुत ही श्रेष्ठ है । प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर गुरुदेव जप-साधना में बैठ गये । रात्रि के करीबन नौ बजे होंगे। दस पन्द्रह पुलिस को लेकर थानेदार वहाँ पर आया जहाँ पर गुरुदेव श्री ध्यान में विराजित थे । आते ही उसने गरजते हुए कहा-यहाँ क्यों बैठे हो ? पास के गाँव में पुलिस का थाना है वहाँ चलो । गुरुदेव श्री ने ध्यान से निवृत्त होकर कहा-हम जैन श्रमण हैं । और रात्रि को परिभ्रमण नहीं करते हैं। किन्तु वह तो अधिकार के नशे में मत्त बना हुआ था। उसने अधिकार की भाषा में कहा-तुम्हें अभी उठकर हमारे साथ चलना होगा । गुरुदेव ने कहा-चाहे आप कितनी ही धमकी दें उस धमकी का हमारे पर कोई असर नहीं होगा। हमारी मर्यादा है। हम रात्रि में नहीं चलते। उसने गुरुदेव श्री की निर्भीकता को देखकर पूछा-बताइये, आपका क्या परिचय है ? गुरुदेव ने कहाहम जैन साधु हैं । साधुओं का क्या परिचय । वे तो घुमक्कड़ होते हैं । हिमालय से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक वे पैदल घूमते हैं। और धर्म-प्रचार करते हैं। उसने कहा-बताइये आप यहाँ किसको जानते हैं ? गुरुदेव ने कहा-बम्बई की जो विधानसभा है उसके स्पीकर भाउ साहब फिरोदिया हमारे शिष्य हैं । उसने कहा-इतनी दूर का नहीं, सन्निकट का कोई परिचित हो तो बतायें। तब गुरुदेव ने कहा-वासदा के नगरसेठ इन्द्रमल जी हमारे शिष्य हैं। हम लोग उनके गुरु हैं । नगरसेठ का नाम सुनते ही थानेदार ने चरण-स्पर्श करते हुए कहा-मुझे क्या पता आप
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