Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१५१
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पाँच-दस मिनट में पन्द्रह-बीस नौजवान हाथ में लाठियाँ लेकर अपने मकानों के पिछले द्वारों से निकलकर उपस्थित हुए और कहा-यहाँ पर क्यों बैठे हो ? शीघ्र ही यहां से चले जाओ। आपश्री ने शांति से कहा-भाइयो, तुम्हारे गांव की प्रशंसा सुनी कि यहां के लोग देवता हैं इसलिए हम यहाँ पर आये । ये हमारे गुरु जी हैं। इनके पैर में बहुत दर्द है । हम जैन साधु वाहन का उपयोग नहीं करते। इसलिए आज हम यहाँ रहना चाहते हैं। प्रातः हम आगे प्रस्थान कर जायेंगे। किन्तु युवकों ने दांत पीसते हुए कहा-तुम एक क्षण भी यहां ठहर नहीं सकते। यदि सीधी तरह से Solo चले जाओगे तो अच्छा है वरना लाठियों से हम तुम्हारी पूजा करेंगे । और उन सभी ने लाठियाँ उठा लीं। वे एक भी बात सुनने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें यह भ्रम हो गया था कि ये साधु नहीं, मुंह बांधे हुए डाकू हैं जो हमारी सारी संपत्ति को लेकर नौ दो ग्यारह हो जायेंगे। क्योंकि उस समय राजस्थान में डाकुओं का अत्यधिक आतक फैला हुआ था । अन्त में आपको वहाँ से प्रस्थान करना पड़ा और वे लोग लाठियाँ लेकर तब तक पीछे चलते रहे जब तक आप सड़क पर न पहुँचे । गुरुदेव श्री के पैर में असह्य दर्द था, किन्तु सड़क पर कोई भी गाँव नहीं था। जो भी गाँव थे वे सडक से एक या दो मील दूर बसे हुए थे। कंकरीले और पथरीले ऊबड़-खाबड़ पथ से उन गांवों में जाना गुरुदेव के लिए कठिन था । अतः भूखे और प्यासे बिना लक्ष्य के सड़क पर चलते रहे । और सामने आने वाले राहगीरों से पूछते रहे कि सड़क के किनारे कोई गाँव या मकान है क्या? राहगीरों ने बताया कि चौदह मील दूर एक सड़क के किनारे मंदिर है। दिन भर चलने के पश्चात् सायंकाल पाँच बजे आप उस मंदिर में पधारे। मंदिर की पुजारिन ने ज्यों ही आपको देखा त्यों ही भक्ति-भावना से विभोर होकर नाच उठी । आज मेरे सद्भाग्य हैं कि गुरुदेवों के दर्शन हुए। पुजारिन ने बताया कि गुरुदेव मेरी माता जयपुर की जौहरियों के वहाँ पर रहती थीं। और मैं भी वहीं पर बड़ी हुई। वर्षों से मेरी इच्छा थी कि सद्गुरुओं के दर्शन हो । किन्तु इस जंगल में कहाँ दर्शन हो ? यहाँ हमारी खेती है । मैं अपने परिवार के साथ यहाँ रहती हूँ। आज मेरा महान् सद्भाग्य है कि हमारे सभी के एकासन व्रत है । मैंने अभी अभी भोजन बनाकर रखा है और स्नान के लिए गरम पानी भी। आप कृपा करो। आहार भी तैयार है और पानी भी। उसने बहुत प्रेम से भिक्षा प्रदान की। आपश्री ने श्रद्धय गुरुदेव से कहा आज का आनन्द भी अपूर्व रहा । प्रातःकाल तर्जना थी तो सायंकाल अर्चना । तर्जना और अर्चना में समभाव में रहना ही श्रमण जीवन का सही आनन्द है श्री गुरु
देव !
उसी विहार यात्रा का एक और प्रसंग है-एक गाँव में आप अपने गुरुदेव श्री के साथ पधारे । और शंकरजी के मन्दिर में आप रुके । भिक्षा के समय में कुछ विलम्ब था। उस गांव में शाकाहारियों के बीस-पच्चीस घर थे। उस दिन अमावस्या भी थी और सोमवार भी था। एक व्यक्ति मन्दिर में दर्शनार्थ आया। उसने कहा-बाबा, आज तुम्हारा भोजन मेरे यहां होगा। आपने उसे समझाने का प्रयास किया कि जैन श्रमण किसी एक गृहस्थ के यहाँ से पूरा भोजन नहीं लेते। वे मधुकरी करते हैं। किन्तु वह व्यक्ति कहाँ समझने वाला था । वह तो अपनी बात पर अड़ा हुआ था। गुरुदेव श्री ने उससे विवाद करना उचित नहीं समझा । जब वह चला गया और भिक्षा का समय होते ही आप पात्र लेकर भिक्षा के लिए चल पड़े। किन्तु वह व्यक्ति पहले ही घर में आपको मिला और उसने आपको फटकारते हुए कहा कि मैंने तुम्हें कहा था कि भिक्षा आज मेरे यहाँ से लेने का है। फिर अन्य स्थान पर भिक्षा के लिए क्यों आये ? लगता है तुम लोग बड़े मक्कार हो। सीधे रूप से मानने वाले नहीं । अतः मैं स्वयं ही सभी घरों में मनाई कर दूं जिससे तुम्हें कोई भिक्षा न दें। आप तो अपरिचित थे और उसने एक ही सांस में सारे गाँव में चक्कर लगा दिया। जब आप उन घरों में भिक्षा के लिए पहुंचे तो सभी ने उपालंभ के स्वर में कहा- तुम कैसे बाबा हो, तुम्हें जरा भी सन्तोष नहीं है । तुम्हारा भोजन उनके वहाँ है, फिर यो क्यों भटक रहे हो ? आपश्री ने उन्हें समझाने का प्रयास किया, किन्तु वे समझने वाले कहां थे? पहले घर में ही आधी रोटी मिली थी और शेष घरों में गालियाँ और उपालंभ । किन्तु आपके चेहरे पर किंचित् मात्र भी खेद नहीं था। प्रसन्नता अंगडाइयाँ ले रही थी। पहले दिन भी आहार पूरा नहीं हुआ था और आज सभी घरों में इनकारी हो चुकी थी। आपने उस सज्जन से पूछा-बताओ, तुम्हारे यहाँ भोजन कब बनता है ? उसने कहा-साधु बने हो, जरा सन्तोष रखो जब बनेगा तब तुम्हें दे देगा। आप शांतभाव से बैठे रहे। शाम के पाँच बज गये तब तक मुंह में पानी भी न डाला था । पाँच बजने के पश्चात् उसने कहा अच्छा चलो, तुम रात्रि में भोजन नहीं करते हो तो अभी हमारे घर चलकर भोजन कर लो । आपने बहुत ही मधुरता के साथ उसे समझाया-जैन साधु, गृहस्थ के घर पर भोजन नहीं करता। वह तो अपने स्थान पर लाकर ही भोजन करता है। अन्त में वह इस बात के लिए तैयार हो गया कि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम यहाँ भोजन लाकर कर सकते हो । गुरुदेव उसके घर पधारे। और निर्दोष आहार देखकर चार-पांच लघु पूड़ियां और एक पात्र में कढ़ी लेकर पधारे। किन्तु ज्यों ही देखा कि पूड़ियों में मिट्टी के तेल की तीव्र गन्ध आ रही थी और कढ़ी को चखी तो वह कसैली थी। जबान
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