Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१४६
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आप श्री रायपुर (राजस्थान) वर्षावास को पूर्ण कर बिलाड़ा की ओर पधार रहे थे । मार्ग में एक सरस वन था और वाण गंगा का निर्मल पानी बह रहा था। तृषा दूर करने को पशु और पक्षीगण वहाँ आते थे और आसपास में छिपे हुए शिकारीगण निर्दयता से उन्हें समाप्त कर देते थे। प्राकृतिक सौन्दर्य स्थली में श्रद्धय सद्गुरुवर्य विश्राम कर रहे थे। उसी समय झाड़ियों में छिपे हुए शिकारीगण उधर निकल आये। आपश्री ने मधुर वचनों से उन्हें समझाया कि निरीह प्राणियों का मारना श्रेयस्कर नहीं है, उन्हें सताना महान पाप है।
"गरीब को मत सताओ, गरीब रो देगा।
गरीब का मालिक सुनेगा तो जड़ से खो देगा।" शिकारियों पर आपकी वाणी का अद्भुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने सदा के लिए शिकार का परित्याग कर दिया।
___ बम्बई और पूना के बीच में लोनावला है, उसके सन्निकट ही कार्ला की गुफाएँ हैं। वे गुफाएँ कला की दृष्टि से बहुत ही सुन्दर बनी हुई है । बौद्ध युग की स्मृति को ताजा करती है। एक दिन वहां पर सैकड़ों बौद्ध साधक आध्यात्मिक साधना किया करते थे। वहाँ पर एक देवी का मन्दिर है और आसपास के आदिवासी उसे अपनी आराध्य देवी मानते हैं। गुरुदेव श्री उस ऐतिहासिक स्थल को देखने के लिए वहाँ पर पधारे और एक दिन वहीं पर विश्राम किया । मध्याह्न में कुछ आदिवासी लोग बकरे का बलिदान देने हेतु वहाँ उपस्थित हुए। आपश्री ने आगे बढ़कर उन्हें समझाया कि बलिदान देना कितना बुरा है, तथापि जब वे न समझें तब आपने कहा कि मेरा बलिदान दे सकते हो, किन्तु बकरे का नहीं। अन्त में आदिवासियों का हृदय परिवर्तित हो गया और उस बकरे को अभयदान देकर कहाबाबा, हम भविष्य में कभी भी बलिदान नहीं करेंगे।
भारत में फैले हुए सभी धर्म-सम्प्रदायों के अनुयायियों में चींटियों, चिड़ियों, पशु-पक्षियों के प्रति अनुकम्पा की भावना है। पर जहाँ मानव के प्रति अनुकम्पा का प्रश्न आता है वहाँ वे बहुत पीछे हटते हैं । हाँ, मानवों पर आपत्तियों के काले-कजराले बादल मंडरा रहे हों, वे भूख-प्यास से छटपटा रहे हों, ठण्ड से ठिठुर रहे हों और भयंकर गरमी में झुलस रहे हों, बिना व्यापार के परिवार सहित दीन-हीन बनकर धर्म से विमुख हो रहे हों, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प आदि के कारण परिवार क्रूर काल के ग्रास हो रहे हों, माताएं अपने मातृत्व को विस्मृत होकर अपने प्यारे लालों को बेचने के लिए तैयार हो रही हों, सत्य और शील से च्युत हो रही हों, वहाँ पर धर्म-चेतना मन्द हो जाती है, वहाँ पर चिन्तन का ढंग ही निराला हो जाता है और अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर वे कहते हैं कि ये सभी अपने कर्म का फल भोग रहे हैं। कौन किसके कर्म को परिवर्तन कर सकता है ? जिसके जैसा कर्म । किन्तु जब उनके जीवन पर विपत्तियाँ मंडराती हैं तब उनकी भाषा बदल जाती है । मानवता की पुकार है कि सर्वप्रथम मनुष्यों के प्रति दया भावना हो । कोई मानव कष्ट से छटपटाता हो, उस समय साधन सम्पन्न व्यक्ति टुकुर-टुकुर निहारता रहे यह मानवता का उपहास है। सदगरुदेव ने जब भी सूना कि मानव कष्ट से घिरा हआ है तो आपने अपने प्रवचनों में मानवों को सहयोग करने के लिए सन्देश दिया और आपके पावन प्रवचनों से दान की निर्मल स्रोतस्विनी प्रवाहित हुई जिससे अनेक मानवों को आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ और उनके लड़खड़ाते जीवन में पुनः अभिनव चेतना का संचार हुआ।
सन् १९७५ का वर्षावास गुरुदेव श्री का पूना में था। उस समय पूना में बहुत तेज वर्षा हुई। झोंपड-पट्टी में रहनेवाले लोग बे-घरबार हो गये । पूज्य गुरुदेव श्री ने शौच के लिए जंगल में जाते हुए उनकी दयनीय स्थिति देखी। उनका दयालु हृदय द्रवित हो गया। लौटकर अपने प्रवचन में उन व्यक्तियों की कारुणिक स्थिति का चित्रण प्रस्तुत किया। उसी समय वहाँ पर श्री पुष्कर गुरु सहायता संस्था की संस्थापना हुई और उस संस्था के द्वारा हजारों व्यक्तियों को सहायता प्रदान की गयी और संप्रति भी उस संस्था के द्वारा सहयोग दिया जा रहा है।
सन् १९४८ में आपका वर्षावास घाटकोपर (बंबई) में था । उस समय भयंकर तूफान आया। उस तूफान से हजारों व्यक्ति बे-घरबार हो गये। आपकी प्रेरणा से लाखों का दान दिया गया । इसी तरह बिहार, आन्ध्रप्रदेश के अनेक दुष्कालों में बाढ़-पीडितों को आपके उपदेश से अन्न और वस्त्र आदि का सहयोग प्रदान किया गया है। वस्तुतः आपश्री का हृदय अत्यधिक कोमल है। किसी भी हीन-दीन व्यक्ति को देखकर वह बर्फ की तरह द्रवित हो जाता है। आपके अद्भुत दयालु हृदय के कारण आपकी साधुता प्रतिपल प्रतिक्षण ज्योतिर्मय होती चली गयी है । पर-दुःख दर्शन से ही नहीं, पर-दुःख के वर्णन मात्र से ही आपका कोमल हृदय चन्द्रकान्तमणि के समान विगलित हो जाता है ।
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