Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
सहिष्णुता की साक्षात् मूर्ति
सन्त कष्ट से घबराता नहीं है। सोने को ज्यों-ज्यों आग में तपाया जाता है त्यों-त्यों वह अधिक चमकता है । चन्दन को ज्यों-ज्यों घिसा जाता है त्यों-त्यों उसमें से अधिक सुगन्ध आती है। जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब सामान्य मानव विचलित हो जाता है, किन्तु सन्त पुरुष उन क्षणों में भी अपूर्व साहस, धैर्य और सहिष्णुता का परिचय देते हैं । सन् १९४२ में आपश्री कुचेरा से विहार कर नागौर पधार रहे थे। मार्ग में मूंडवा नामक एक कसबा है। उस समय वहाँ पर एक भी जैन का घर नहीं था । माहेश्वरियों के सैकड़ों घर थे । आपश्री ने भिक्षा हेतु एक माहेश्वरी के भव्य भवन में प्रवेश किया। माहेश्वरी जैन श्रमणों से परिचित नहीं था । उसका व्यवसाय उड़ीसा में था । ज्यों ही उसने आपको अपने भवन में प्रवेश करते हुए देखा त्यों ही क्रोध से आँखें लाल करके कहा- शरम नहीं आती ? बिना पूछे किसी के घर में चले आये हो ? निकल जाओ यहाँ से 1
आपभी ने मुस्कराते हुए कहासेठ जी हम जैन साधु है और मधुकरी करते हैं मधुकरी के लिए ही तुम्हारे यहाँ पर आये हैं। हम लोग गरम पानी का उपयोग करते हैं। यदि आपके यहाँ पर स्नान आदि के लिए गरम पानी हो तो हमें दे दीजिए। सेठ जी ने गुर्राते हुए कहा- क्या तेरे बाप ने यहाँ गरम पानी कर रखा है ? आपश्री ने सहज मुद्रा में ही कहा – इसीलिए तो हम आये हैं । भारतीय दर्शन शास्त्र में पुनर्जन्म माना गया है । आप इस जन्म के नहीं, किन्तु किसी जन्म में बाप रहे होंगे । आपकी क्षमा से सेठ का क्रोध नष्ट हो गया । उसने कहा आप यहीं खड़ रहिए। मैं अन्दर जरा पूछता हूँ कि गरम पानी है या नहीं। सेठ ने सेठानी से पूछा, जैन साधु आये हैं। क्या गरम पानी है ? सेठानी भी तो सेठ की तरह ही तेज-तर्रार थी। उसने कहा- क्या उसकी माँ ने गरम पानी कर रखा है ? सेठ ने बाहर आकर कहा - पानी तो नहीं है। गुरुदेव ने सेठानी के शब्द सुन लिये थे। आपने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा, सेठ जी, आज का दिन तो बड़ा ही अच्छा है। क्योंकि माँ भी मिल गयी, पिता भी मिल गये हैं। इसलिए रोटी भी मिल जायगी । पानी न सही यदि रोटी बनी हो तो वह भी दे दीजिए। सेठ अन्दर गया और कहा - आइये, आप भी अन्दर अपनी माँ से भी मिल लीजिए और उसने भक्ति भावना से विभोर होकर भिक्षा प्रदान की ओर चरणों में गिर पड़ा कि मैंने अपने जीवन में हजारों साधु देते हैं, जगन्नाथपुरी में मेरा व्यवसाय है वहाँ पर हजारों साधु-संन्यासी जाते हैं। जरा-सा मन के प्रतिकूल होने पर वे चिमटा लेकर ही दौड़ते हैं। पर आपको मैंने इतने कर्कश व कठोर शब्द कहे किन्तु आपकी मुखमुद्रा पर कुछ भी परिवर्तन नहीं आया । वस्तुतः आज मुझे एक सच्चे सन्त के दर्शन हुए। और उस सेठ के मन में जन श्रमणों के प्रति अगाध श्रद्धा पैदा हो गयी। यह है सहिष्णुता का स्थायी प्रभाव ।
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सन् १९५४ में आप देहली का वर्षावास पूर्ण कर जयपुर आ रहे थे । महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज के पैर की नस में एकाएक दर्द हो जाने से आपको एक गांव में रुकना पड़ा। वहाँ पर जीन भ्रमण पहली बार गये थे । आपश्री ने एक मकान में प्रवेश किया। मकान के आँगन में पन्द्रह-सोलह वर्ष की बालिकाएँ खेल रही थीं । ज्यों ही उन्होंने मुँह बाँधे हुए व्यक्ति को आँगन में आया हुआ देखा त्यों ही वे भय से कांप उठीं और जोर से चिल्लाती हुई दनादन सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँच गयीं। लड़कियों के चीत्कार को सुनकर घर मालकिन बाहर आयी और लगी गालियों की बौछार करने । जब उसके गालियों का स्टॉक समाप्त हो गया, आपने कुछ भी उत्तर न दिया । तो वह शान्त हो गयी। उसने पूछा- अरे तू कौन है? आपने धीर-गंभीर शब्दों में कहा- मैं जैन साधु हैं। उसने कहातू कैसा जैन साधु है ? साधु वह होता है जब किसी गृहस्थ के द्वार पर जाते ही "हरे कृष्ण हरे राम " की जोर से आवाज लगाता है। तू साधु नहीं । पाखण्डी है। आपने मुस्कराते हुए कहा- माताजी, लगाने का नहीं है । वह शांति के साथ ही गृहस्थ के घर में प्रवेश करता है और जो मिलती है वह उसे ले लेता है। यदि आपके यहाँ भी कुछ रोटी आदि बनी हुई हो तो हमें दे दीजिए ।
जैन साधु का आचार आवाज भी अपने नियमानुसार भिक्षा
घर मालकिन ने पहली बार ही ऐसा साधु देखा था जो दुनियाँ भर की गालियाँ देने पर भी क्रोधित नहीं हुआ था । और मुस्कराते हुए भिक्षा मांग रहा था। उसका श्रद्धा से सिर झुक गया। उसने प्रेम से भिक्षा दी और बोली- बाबा, मेरा अपराध क्षमा करना । मुझे क्या पता कि तुम इतने अच्छे साधु हो ।
ओर कदम बढ़ा रहे थे । उन दिनों गुरुदेव के पैर में अत्यधिक राहगीरों से पता चला कि सड़क से चार फर्लांग दूर एक नया अतः तुम्हें वहाँ भिक्षा मिल जायगी । आपश्री गुरुदेव के साथ नीम का एक वृक्ष था और उसके चारों ओर बैठने के लिए चबूतरा बना लिया। किन्तु कुछ ही क्षणों में गाँव के मकानों के द्वार बन्द हो गये । और
आपश्री अपने गुरुदेव के सााथ ही जयपुर की दर्द था । अतः विशेष लंबे विहार की स्थिति नहीं थी। गाँव बसा हुआ है। वहाँ के किसान बहुत ही समृद्ध हैं । उस गाँव में पधारे। और गाँव के बीच में हुआ था । वहाँ जाकर आपश्री ने विश्राम
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