Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
१३६ .
किन्तु वीर रमणियों ने और बालकों ने भी प्राणों की आहुतियां दी। जन्मभूमि के लिए ही नहीं, किन्तु धर्म के लिए भी जिन्होंने हँसते-हँसते बलिदान दिया है।
भारत का नक्शा उठाकर देखें तो उसके पश्चिमी अंचल पर विशाल प्रदेश राजस्थान है, अस्ताचल को जाता हुआ सूर्य प्रतिदिन इस पावन भूमि को अंतिम नमस्कार करके पुनः उदय होने का वरदान मांगता है । राजस्थान का नक्शा उठाकर देखें तो उसके पश्चिमी छोर को स्पर्श कर पूर्व और उत्तर की ओर बढता हुआ एक विशाल भूखण्ड है, मेवाड़; जो वीरता, साहस, और धार्मिक-संस्कारों में सदा अग्रणी रहा है। उसी मेवाड के सुप्रसिद्ध ग्राम गोगुन्दा के सन्निकट सिमटार ग्राम में श्रद्धय गुरुदेव का जन्म हुआ।
आपश्री के पूज्य पिताश्री का नाम सूरजमल जी था और माता का नाम वालीबाई था। आप वर्ण की दृष्टि से ब्राह्मण थे । आपके पूर्वज पाली में रहते थे। पाली का ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। प्राचीन शिलालेखों में पाली का नाम पल्लिका अथवा पल्ली मिलता है। अनुश्रुति है कि यहाँ पर एक लाख ब्राह्मणों के घर थे। और वे सभी लक्षाधिपति थे। बाहर से जो भी गरीब ब्राह्मण आता उसे वे एक ईट और एक रुपया प्रति घर से देते । ईटों से वह मकान बना लेता और एक-एक रुपया प्राप्त होने से वह भी लखपति बन जाता । उन्हें यदि कोई पूछता तो पाली में रहने से वे अपने आपको पालीवाल कहते और सभी को अपनी पावन-भूमि का गर्व था । किन्तु सम्बत् १३९३ में यवनों का आक्रमण पाली में हुआ। पालीवालों के साथ भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में यवन जीत नहीं पा रहे थे, अत: पहले युद्ध क्षेत्र में गायों को आगे कर लड़ने लगे । गायों पर प्रहार न करने के कारण पालीवाल परास्त हो गये । और मुसलमानों ने उन्हें परेशान करने के लिए वहाँ के तालाबों में गायों को कत्ल करके डाल दिया जिससे वे पानी भी न पी सके । अतः उन्हें १३६३ में पाली छोड़नी पड़ी। और भारत के विविध अंचलों में वे चले गये । वहाँ जो ब्राह्मण थे वे पालीवाल ब्राह्मण कहलाये और जो वैश्य थे वे पालीवाल कहलाये । इस तथ्य को एक प्राचीन कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है
तेरह सौ तिरानबे घणो मच्यो घमसाण ।
पाली छोड़ पधारिया ये पालीवाल पहचान ॥ जैनियों के चौरासी गच्छों में एक पल्लीवाल गच्छ भी है जिसकी उत्पत्ति पाली से मानी जाती है। हाँ तो, पाली से ही आपश्री के पूर्वज मेवाड़ में आये। मेवाड़ के महाराणा ने आपके पूर्वजों को जागीरी दी। सिमटार में सभी ब्राह्मण जागीरदार हैं।
श्री सूरजमलजी का स्वभाव बहुत ही मधुर था और व्यवहार बड़ा विनम्र था। और श्रीमती वालीबाई के शील-स्वभाव-विनय-मधुर भाषण-कार्यदक्षता प्रभृति सद्गुणों को देखकर आसपास के पड़ोसी उसे इस परिवार की लक्ष्मी समझते थे । एक दिन वालीबाई सो रही थी। प्रातःकाल का शीतल मन्द समीर ठुमक-ठुमक कर चल रहा था। वालीबाई ने स्वप्न में देखा, एक आम का हरा-भरा वृक्ष जो फलों से लदा हुआ था, जिसकी मीठी और मधुर सौरभ से आसपास का वातावरण महक रहा था, वह आकाश से उतरा और मुंह में प्रवेश कर गया । इस विचित्र स्वप्न को देखकर वह उठ बैठी। उसने अपने पति सूरजमलजी से प्रस्तुत स्वप्न के सम्बन्ध में पूछा। उन्होंने स्वप्न शास्त्र की दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा-यह स्वप्न बहुत ही शुभ है। आम फलों का राजा है। अतः तुम्हारा जो पुत्र होगा वह राजा-महाराजाओं की तरह तेजस्वी होगा और अपनी विद्वत्ता की मधुर सौरभ से दिग्-दिगन्त को सुगन्धित बनायेगा।
स्वप्न के फल को सुनकर माता फली न समायी। उसके पैर धरती पर नहीं टिक रहे थे। वह आज बहुत ही प्रसन्न थी। भावी की कमनीय कल्पना कर आनन्द विभोर थी।
उस युग में बहुविवाह की प्रथा थी। सूरजमल जी जागीरदार थे । अतः उनके दो पलियाँ थीं। जब लघुपत्नी को यह ज्ञात हुआ कि इस प्रकार बड़ी बहन को शानदार स्वप्न आया है तो वह मन-ही-मन घबराने लगी। सवा नौ माह पूर्ण होने पर वि० सं० १९६७ के आश्विन शुक्ला चतुर्दशी के दिन बालक का जन्म हुआ। स्वप्न में फला-फूला आम्रवृक्ष देखा था, अतः बालक का नाम अम्बालाल रखा गया। बालक अम्बालाल दूज के चान्द की तरह बढ़ रहा था। माता वालीबाई ने देखा कि मेरे कारण से मेरी लघु बहन का अन्तर्मानस व्यथित है, अतः मुझे यहाँ नहीं रहना चाहिए। ऐसा विचार कर वह अपने प्यारे पुत्र को लेकर अपने पिता के घर नान्देशमा पहुँच गयी। बाद में सूरजमल जी की लघुपत्नी के भी एक पुत्र और एक पुत्री हुई जिनका नाम भैरूलाल और तुलसी बाई रखा गया। नान्देशमा में ही लालन-पालन व बड़े होने से आपकी जन्मभूमि नान्देशमा के नाम से ही प्रसिद्ध है।
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