Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१४२
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
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नीचे ही बोधि की उपलब्धि हुई थी। मर्यादा पुरुषोत्तम राम पंचवटी में वटवृक्ष के नीचे ही रहे थे। अतीतकाल से ही वट वृक्ष आदर की दृष्टि से देखा जा रहा है। दोनों बालकों ने उस वृक्ष के नीचे अवस्थित गुरुदेव के श्री चरणों में विनम्र वन्दना की । और शरीर पर जो सुन्दर रंग-बिरंगे तथा बहुमूल्य आभूषण पहने हुए थे उनका त्याग करने के लिए वे एकान्त स्थान की ओर गये। क्योंकि बाह्य वेष का मन के साथ गहरा सम्बन्ध है । केसरी और लाल रंग के वस्त्र वीरता और युद्ध के प्रतीक माने गये हैं, काला वस्त्र भय, आक्रोश, क्रोध व चिन्ता का प्रतीक माना गया है। और श्वेत वस्त्र मन की धवलता व शांति का प्रतीक है। युद्ध विराम के लिए सफेद झण्डी बतायी जाती हैं और शांति के लिए श्वेत वस्त्र धारण किये जाते हैं। वैरागी द्वय संसार के अशान्त राग-द्वेषमय कलुषित वातावरण से मुक्त होकर शांति, समता, निर्लोभता और वीतरागता के पथ पर अपने मुस्तैद कदम बढ़ा रहे थे । अतः रंगीन वस्त्र तथा आभूषणों का परित्याग कर श्वेत वस्त्रों को धारण कर गुरुदेव के चरणों में पुनः उपस्थित हुए। उस समय ऐसा परिज्ञात हो रहा था कि राजहंस मानस सरोवर की यात्रा के लिए सन्नद्ध होकर पंख फड़फड़ा रहे हैं । सैकड़ों व्यक्तियों की उत्सुक आँखें उन बालकों के दर्शन के लिए उत्सुक थीं। चारों ओर से जय-जयकार की गगनभेदी ध्वनियों से आकाशमंडल गूंज रहा था। बड़ा अद्भुत दृश्य था । चौदह वर्ष के दो बालक जीवन-भर के लिए सत्य, अहिंसा आदि महाव्रतों की अखण्ड साधना का दृढ-संकल्प ग्रहण कर आग्नेय पथ पर बढ़ रहे थे। बड़ा ही रोमांचकारक और भावप्रवण सुन्दर दृश्य था। दर्शकों के नेत्रों से आनन्द और आश्चर्य के आँसू प्रवाहित थे। और हृदय के सुकुमार तार झनझना रहे थे कि धन्य हो ऐसे बाल-मुनियों को।
दोनों बालक सद्गुरुदेव के समक्ष श्वेत-परिधान को धारण किये हुए भागवती दीक्षा ग्रहण करने के लिए उपस्थित थे। गुरुदेव श्री ने शास्त्रीय दीक्षा विधि सम्पन्न की। अब वे दोनों मुनि बन गये थे । अतः रामलाल जी का नाम मुनि प्रतापमल जी रखा गया और वे पं० नारायणचन्द्रजी महाराज के शिष्य घोषित किये गये और अम्बालाल जी का नाम पुष्कर मुनि जी रखा गया और वे श्रद्ध य ताराचन्द जी महाराज के शिष्य जाहिर किये गये।
श्रमण बनकर श्री पुष्कर मुनि महाराज ने अपने जीवन के तीन लक्ष्य बनाये-संयम-साधना, ज्ञानसाधना और गुरुसेवा।
शिष्य का जीवन तभी निखर सकता है जब योग्य गुरु का संगम हो । बिना गुरु के न अनुभव का अमृत मिलता है और न ज्ञान का मार्ग ही। प्राचीन ग्रन्थों में गुरु को भगवान के समान माना है । कहा है "तित्थयर समो सूरी" याने आचार्य तीर्थंकर के समान है। उपनिषदों में भी कहा है-"आचार्यवान्, पुरुषो वेद"-जिसने गुरु किया वही ज्ञानी बन सकता है।
आपश्री दीक्षा ग्रहण के पश्चात् विद्यार्जन में लग गये । बाल्यावस्था, तीक्ष्ण बुद्धि और विद्याध्ययन के प्रति प्रेम इन तीनों का संगम होने से आपश्री अपने भावी जीवन के महल का बड़ी तीव्रता के साथ निर्माण करने लगे। आपने आगम साहित्य का व स्तोक-साहित्य का पहले अध्ययन किया, 'ज्ञानकण्ठा और दाम अण्टा' प्रस्तुत राजस्थानी कहावत के हार्द को आप सम्यक्प्रकार से जानते थे। अतः कण्ठस्थ करने में आपका विशेष लक्ष्य था। आपने जब संस्कृत व्याकरण का अध्ययन प्रारम्भ किया तब गुरुदेव ने उसकी दुरूहता का दिग्दर्शन कराते कहा कि
खान पान चिन्ता ततै, निश्चय माँडै मरण ।
घो-ची-पू-ली करतो रहै, तब आवै व्याकरण । अर्थात् जब कोई खान-पान प्रवृत्ति चिन्ताओं को त्याग कर केवल व्याकरण के पीछे अपना जीवन झोंक देता है उतने समय के लिए स्मरण करने, पुनरावर्तन करने, पूछताछ करने और लिखने को अपना मुख्य विषय बनता है तब जाकर संस्कृत व्याकरण को हृदयंगम करने की सफलताएँ प्राप्त होती हैं । आपधी ने व्याकरण को ही नहीं, पर जिस विषय को भी हाथ में लिया उसमें अपने आपको समर्पित किया। और अपनी प्रखर बुद्धि के बल पर सैकड़ों ग्रन्थ कण्ठस्थ किये। आपश्री जानते थे बाल्यकाल में जितना स्मरण किया जाय उतना ही अच्छा है। उसके पश्चात् बुद्धि में कुछ परिपक्वता आती है, पढ़े हुए अर्थ को समझने की जिज्ञासा उबुद्ध होती है और दूसरों को बताने की भी। विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषण और लेखन आवश्यक है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक बेकन ने लिखा है-"रीडिंग मेक्स ए फुल मैन, स्पीकिंग ए परफेक्ट मैन, राइटिंग ए एग्जेक्ट मैन ।"--अध्ययन मनुष्य को पूर्ण बनाता है, भाषण उसे परिपूर्णता देता है और लेखन उसे प्रामाणिक बनाता है।
आपश्री के अध्ययन के लिए गुरुदेव ने अनेक उच्च कोटि के विद्वानों को नियुक्त किये । पण्डित रामानन्दजी जो
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