Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
लक्षणों की सूच
महासती जी ने बालक के विचार, उसकी दीक्षा ग्रहण करने की भावना और उसके शुभ नाएँ मारवाड़ में गुरुदेव श्री ताराचन्द जी महाराज के पास भिजवायीं। सूचना पाकर श्री ताराचन्द जी महाराज मेवाड़ में पधारे। और उदयपुर आदि क्षेत्रों को अपने उपदेशों से पावन करते हुए परावली पधारे। श्रोतागण प्रवचन सुनने के लिए उत्सुक थे । बालक अम्बालाल जब जंगल से लौटकर आया तब उसने देखा कि चार वर्ष पूर्व जिन महाराज के मैंने दर्शन किये थे वे पट्टे पर बैठे हुए प्रवचन कर रहे हैं। प्रसंग चल रहा था भृगु पुरोहित का, जिनके दोनों पुत्र संयम साधना के महामार्ग पर बढ़ना चाहते हैं, और माता-पिता उन्हें रोकना चाहते हैं । किन्तु उनका वैराग्य इतना प्रबल था कि माता-पिता और राजा-रानी भी साधना के पथ पर बढ़ जाते हैं। एकान्त में बैठे तो बालक ने अपने हृदय के विचार महाराज श्री के समक्ष
सकता है । साधारण व्यक्ति के लिए तो वह पत्थर की आवृत्त उसकी चमक और दमक को देखकर जौहरी समझ तो मूल्यवान नगीना बन सकता है ।
प्रवचन के पश्चात् जब गुरुदेव व्यक्त किये कि मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ । श्रद्धेय गुरुदेव की पैनी दृष्टि ने बालक के जीवन में छिपा हुआ महान व्यक्तित्व और कृतित्व देखा । उन्होंने देखा, यह बालक एक दिन विशिष्ट व्यक्ति बनेगा । वस्तुतः पन्ने की चट्टान या खण्ड को एक जौहरी ही परख चट्टान है । किन्तु उसकी बनावट एवं मिट्टी के मटमैले रंग से लेता है कि यह पत्थर नहीं, पन्ना है। इसे काटा-छांटा जाय
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उस समय भी बालक के पैर में पीड़ा थी। भाग्यवशात् एक वैद्य उदयपुर से वहां आये हुए थे। महाराज श्री के संकेत से वैद्य ने उपचार किया और बालक कुछ ही दिनों में पूर्ण स्वस्थ हो गया । और बालक श्री ताराचन्द जी महाराज के साथ ही चल दिया। यद्यपि पिता सूरजमल जी ने बालक को रोकने का बहुत ही प्रयास किया, किन्तु नान्देशमा के श्रावकों के समझाने से उन्होंने सहर्ष दीक्षा की अनुमति प्रदान कर दी। बालक अम्बालाल ने गुरुदेव के नेतृत्व में अध्ययन प्रारंभ किया । बुद्धि की तीक्ष्णता से कुछ ही समय में अक्षरों का परिज्ञान हो गया और पुस्तकें पढ़ने लगा । तथा धार्मिक साहित्य का अभ्यास भी करने लगा। उस वर्ष गुरुदेव का वर्षावास पाली में हुआ । आप वैरागी के रूप में थे। उस समय महान् चमत्कारी वक्तावरमल जी महाराज भी वहाँ थे । उन्होंने बालक अम्बालाल के हाथ में पद्म, कमल, ध्वजा, मत्स्य, डमरू, आदि अनेक शुभ रेखाएं देखकर श्री ताराचन्दजी महाराज से कहा"आपका यह शिष्य जैन धर्म की प्रभावना करने वाला बहुत ही भाग्यशाली होगा ।"
अनेक संघों का आग्रह था कि आपकी दीक्षा हमारे यहाँ पर हो । किन्तु गुरुदेव ताराचन्द जी महाराज चाहते थे कि आपका अध्ययन खूब अच्छी तरह से हो जाय । अतः गुरुदेव कुछ लम्बे समय तक बैरागी के रूप में रखना चाहते थे । सिवाना और जालौर संघ वालों का आग्रह था — गुरुदेव वैरागी को अध्ययन करते हुए बारह महीने से अधिक समय हो गया है । अतः दीक्षा का सुनहला लाभ हमें मिलना चाहिए। उनकी निर्मल निश्छल भक्ति ने गुरुदेव का दिल पिघला दिया। भक्त श्रावक सन्तों को प्यारे होते हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में श्री कृष्ण ने भी अर्जुन से कहा -- जो भक्तिमान है वह मुझे प्रिय है ।
"भक्तिमान् यः स मे प्रियः ।"
तथा - "भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः " तो गुरुदेव भक्त श्रावकों की बात कैसे टाल सकते थे ? अन्त में की। संघ में आनन्द की गंगा बह चली । वि० सं० १९८१ की ज्येष्ठ शुक्ला नयी आशाएँ व नयी उमंगें लेकर उदित हुआ था। ठुमक ठुमक कर पवन कलरव के बहाने साधना-पथ के इस महान् पथिक की बलैयाँ ले रहे थे । एक लाल और बालक अम्बालाल दोनों घोड़े पर बैठ कर गुरुदेव श्री के चरणों में चमक थी । चेहरे पर विलक्षण तेज दमक रहा था। वे उत्साह और उमंग से ताराचन्द जी महाराज और पं० नारायणचन्द्र जी महाराज अन्य सन्तों के विराजमान थे ।
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गुरुदेव ने जालौर संघ को स्वीकृति प्रदान दशमी का दिन था। प्रभात का सूर्य आज चल रहा था। और आकाश में पक्षिगण विशाल जुलूस के साथ बालक रामपहुँचे । उनकी आँखों में आज अद्भुत भरे हुए दिखलायी दे रहे थे । गुरुदेव साथ एक विशाल वट वृक्ष के नीचे
भारतीय संस्कृति में वटवृक्ष का विशिष्ट स्थान रहा है । वह विस्तार और समृद्धि का प्रतीक है । उसकी शीतल छाया में सात्विकता और साधना की मधुर सौरभ होती है । वटवृक्ष के नीचे ही भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई थी और हजारों व्यक्तियों को सर्वप्रथम उन्होंने दीक्षा प्रदान की थी। तथागत बुद्ध को भी वटवृक्ष के
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