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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ ****************************************************************
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रायः उन्हीं हिंसकों का वर्णन है, जिनकी आजीविका ही हिंसा के साधन से चलती है। वे ऐसे क्रूर-कर्मियों में ही उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवहिंसा में ही जीवन व्यतीत कर काल के शिकार बन जाते हैं। निरन्तर हिंसक कृत्यों में ही रहने के कारण उनका हृदय इतना क्रूर कठोर और निर्दय हो जाता है कि जीवों को आक्रन्द करते, तड़पते, छटपटाते और मरते देखकर उनके हृदय में तनिक भी कोमलता नहीं आती। उनका हृदय इतना अधिक क्रूर हो जाता है। वे सूर्योदय से पूर्व ही नियमानुसार शूकरघात, मृगघात, पक्षीघात और मत्स्यघात के लिए निकल पड़ते हैं। उनको प्राप्त मनुष्यभव, पाप का भार बढ़ाने वाला ही होता है। इन पापानुबन्धी-पाप के भाजन मनुष्यों के लिए, मनुष्य जैसा उत्तम भव भी दुर्गतिरूप ही रहा। यदि उनके मन में कुछ अंशों में कोमलता है, तो अपने कौटुम्बिक मनुष्यों या अधिक हुआ तो मनुष्य जाति के लिए ही। पशुओं, पक्षियों और जलचरों के लिए तो उनके हृदय में करुणा का कोई स्थान ही नहीं है।
ग्राम्य-सूअर - जिन्हें चाण्डाल लोग पालते हैं। इनकी घात का तरीका बड़ा ही क्रूर है। कहते हैं कि सूअर की चमड़ी मोटी होती है और बाल भी ऐसे होते हैं कि साधारण शस्त्र से उसकी हत्या होना कठिन हो जाता है। चाण्डाल लोग, सूअर के पांवों को लोहे के तार से दृढ़तापूर्वक बांध देते हैं, जिससे । वह उठ कर भाग नहीं सके। फिर उस पर घास-फूस आदि डाल कर आग लगा देते हैं। वह बेचारा आग से जलता हुआ तड़पता है और भागने का प्रयत्न करता है, किन्तु पाँव दृढ़तापूर्वक बंधे होने के कारण भाग नहीं सकता। यदि जोरदार झटके से तार टूटकर एक भी पांव खुल जाये, तो वह आग में से
कलने का प्रयत्न करता है, किन्त पास ही लाठियाँ लेकर खडे चाण्डाल लोग, लाठियों की मार से उसे गिरा देते हैं। कितनी क्रूरतापूर्वक हत्या की जाती है उस बिंचारे की? किन्तु उनका क्रूरतम हृदय पसीजता ही नहीं। वे उसका मांस खाकर और पैसे बटोर कर प्रसन्न होते हैं।
जिस प्रकार मृग को दबोचने के लिए पाले हुए चीते छोड़े जाते हैं, उसी प्रकार विकराल एवं भयंकर कुत्तों को पालकर उनसे भी हिरन, खरगोश, शृंगाल आदि जीवों की हत्या करवाते हैं।
खेतों और जंगलों को साफ करने या अन्य कारणों से आग लगाकर छोटे-बड़े असंख्य त्रस जीवों को होमने के कार्य भी स्वार्थी मनुष्य करता है।
हरिएसा' - 'हरिकेशाश्चाण्डालविशेषा' - तथा – 'हरिकेशा: मातंगाश्चाण्डाला इत्यर्थः।' हरिकेश का अर्थ 'चाण्डाल' होता है। यह शब्द जाति-विशेष का पर्याय है। इससे शंका होती है कि उत्तराध्ययन अध्ययन १२ में वर्णित महात्मा का 'हरिएस' विशेषण जाति-सूचक था. और नाम 'बल' था या उनका नाम ही 'हरिएसबल' था? किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र देखते यह शंका नहीं रहती। यहाँ उसका नाम ही 'हरिएसबल' और 'हरिएस' लिखा है। जैसे - 'हरिएसबलो नाम' गाथा १ और 'सोवागपुत्तं हरिएस साहुं' (गाथा ३७)।
अब हिंसक मनुष्यों की जाति का परिचय सूत्रकार स्वयं देते हैं।
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