Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 302
________________ चतुर्थ भावना-पूर्वभोग-चिन्तन त्याग 285 **************************************************************** रमणिज्जा'- रमणीय, उज्जगेय-पउर-णडणट्टग - आतोद्य-वाद्य ध्वनि, गान, बहुत-से नट तथा नर्तक, जल्ल - रस्सी पर खेलने वाले, मल्ल - कुश्ती करने वाले, मुट्ठिग - मुष्टि से प्रहार करने वालों का दंगल, वेलंबग-कहग- विदूषकों का हास्य तथा उनके बोलने का ढंग, पव्वग- प्ल्वक-तैराक, लासगरास-लीला, आइक्खग - शुभाशुभ कहने वाले, लंख - लम्बे बांस पर खेलने वाले, मंख - चित्रमय पाटिया लेकर फिरने वाले भिक्षुक, तूणइल्ल - तूण नामक वाद्य बजाने वाले, तुंबवीणिय - वीणा बजाने वाला, तालायरपकरणाणि - तालचर आदि की क्रियाएँ, य - और, बहुणि महूरसरगीयसुस्सराई - बहुत-से मधुर ध्वनि वाले गायकों में गीत और सुन्दर स्वर, अण्णाणि य एवमाइयाणि - और इसी प्रकार के अन्य, तवसंजमेबंभचेरघाओवघाइयाइं - तप, संयम और ब्रह्मचर्य की घात और उपघात करने वाले, अणुचरमाणेणं बंभचेरं - ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, ण ताई समणेण लब्भा द8 - उस साधु को कामोद्दीपन करने वाले वे सभी पदार्थ नहीं देखना, ण कहेउं - वर्णन नहीं करना, ण वि सुमरिउं - स्मरण भी नहीं करना चाहिए, एवं - इस प्रकार, पुव्वरयं-पुव्वकीलिय-विरइ-समिइ-जोगेणं - पूर्वरत, पूर्व क्रीड़ित-स्मरण विरति रूप समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पाअन्तरात्मा, आरयमणविरयगामधम्मे - मैथुन से निवृत्त और इन्द्रिय लोलुपता से रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, बंभचेरगुत्ते - ब्रह्मचर्य से गुप्त। भावार्थ - चौथी भावना 'भोगस्मृति-विवर्जन' है। गृहस्थवास में रहे हुए स्त्री के साथ भोगे हुए कामभोग और की हुई क्रीड़ा तथा साली-साराहेली आदि के साथ हुए मोहक सम्बन्धों और स्त्रीपुत्रादि के स्नेहादि का स्मरण-चिंतन नहीं करे। वैवाहिक प्रसंग, पत्नी का द्विरागमन, पुत्र का चूडाकर्म (मुण्डन) अन्न प्रासनादि प्रसंगों को भी स्मरण नहीं करे। स्त्रियों के साथ मदनत्रयोदशी या वसंतोत्सवादि पर की हुई क्रीड़ा अथवा नाग आदि के यज्ञ और इन्द्र महोत्सवादि के समय स्त्रियों के विशिष्ट श्रृंगार * एवं उत्तम परिवेग, हाव-भाव, ललित-मोहक चेष्टाएं, कटाक्ष, विलास आदि से सुशोभित, अपने अनुकूल प्रेमिकाओं के साथ किये हुए शयनादि भोगों का स्मरण नहीं करे। ऋतुओं के सुगन्धित एवं सुखदायक पुष्पों, सुगन्धित द्रव्यों, चन्दन इत्रादि और धूप, सुखद स्पर्श, वस्त्र, आभूषण आदि गुणों से युक्त, रमणीय वाद्य, गीत, नटों का नाटक और नृत्य, रस्से पर किया जाता हुआ खेल, मल्लों की कुश्ती, मुष्टियुद्ध, विदूषकों की भांड-चेष्टाएं, तैराकी के दृश्य, रासलीला, श्रृंगार-रस युक्त कहानियाँ, बांस के अग्रभाग पर किये जाने वाले खेल, चित्र-फलक दिखाकर किया जाने वाला मनोरंजन, तूण नामक बाजा, वीणावाद्य, तालबद्ध नृत्य और इसी प्रकार के अन्य बहुत-से मधुर स्वर के गायन आदि का स्मरण नहीं करे। इनके स्मरण से तप-संयम और ब्रह्मचर्य का घातोपघात होता है। ब्रह्मचर्य के पालक साधु को वैसे दृश्य भी नहीं देखना चाहिए, न वैसी कथा-वार्ता करनी चाहिए और न मोहवर्द्धक बातों का स्मरण ही करना चाहिए। इस प्रकार पूर्वावस्था के काम-भोगों का स्मरण नहीं करने रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। ऐसा साधक इन्द्रियों के : विकारों से रहित, जितेन्द्रिय एवं ब्रह्मचर्य गुप्ति का धारक होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354