Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 338
________________ प्रथम भावना-श्रोत्रेन्द्रिय-संयम 321 MAHA ******************************-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* .... ...... इसी प्रकार के, अण्णेसु - दूसरे, मणुण्णभद्दएसुसहेसु - मनोज्ञ एवं मनोहर शब्द सुन कर, समणेण - साधु को, तेसु- उनमें, ण सजियव्वं - आसक्त न होना चाहिए, ण रज्जियव्वं - राग न करना चाहिए, ण गिग्झियव्वं - गृद्ध नहीं होना चाहिए, ण मुज्झियव्वं - मूर्च्छित नहीं होना चाहिए, ण विणिग्यायआवज्जियव्वं - अपनी और दूसरों की घात नहीं करनी चाहिए, ण लुभियव्वं - लुब्ध नहीं होना, ण तुसियव्वं - तुष्ट नहीं होना, ण हसियव्वं - हँसना नहीं, ण सई - स्मरण नहीं करना, ण मइ कुज्जा - विचार नहीं करना, तत्थ - उनका। भावार्थ - परिग्रह-त्याग नामक अन्तिम महाव्रत की रक्षा के लिए पांच भावनाएं हैं। उनमें में प्रथम भावना श्रोत्रेन्द्रिय-संयम है। प्रिय एवं मनोरम शब्द सुन कर उनमें राग नहीं करना चाहिए। वे मनोरम शब्द कैसे हैं? लोगों में बजाये जाने वाले मृदंग, पणव, दर्दुर, कच्छपी, वीणा, विपंची. वल्लकी, बद्धीसक, सुघोषा, नन्दी, उत्तम स्वर वाली परिवादिनी, बंसी, तूणक, पर्वक, तंती, तल, ताल। इन वाद्यों की ध्वनि, इनके निर्घोष और गति सुन कर इन पर राग नहीं करे तथा-नट, नर्तक, रस्सी पर किये जाने वाले नृत्य, मल्ल, मुष्टिक (मुक्के से लड़ने वाले)विलम्बक (विदूषक) कत्थक, प्लवक (उछलकूद करने वाले) लासक (रास गाने वाले) आख्यापक (कहानी सुनाने वाले) लंख (बांस पर ... खेलने वाले) मंख (चित्रपट बताने वाले) तूणइल्ल, तुम्बवीणिक और तालाचर से किये जाने वाले अनेक प्रकार के मधुर स्वर वाले गीत सुनकर आसक्त नहीं बने। ____कांची, मेखला, कलापक, प्रतारक, प्रहेरक, पायजालक (पायल) घण्टिका किंकिणी, रत्नजालक, क्षुद्रिका, नूपुर, चरणमालिका, कनकनिगड (स्वर्ण निर्मित भूषण) और जाल की शब्द-ध्वनि सुन कर तथा लीलापूर्वक गमन करती हुई युवतियों के आभूषणों के टकराने से उत्पन्न ध्वनि, तरुणियों के हास्य वचन, मधुर एवं मंजुल कण्ठ-स्वर, प्रशंसा युक्त मीठे शब्द और ऐसे ही अन्य मोहक शब्द सुन कर साधु, आसक्त नहीं बनें, रंजित नहीं होवे, गृद्ध एवं मूञ्छित नहीं बने, स्व-पर घातक नहीं होवे, लुब्ध और प्राप्ति पर तुष्ट नहीं हो, न हंसे और उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करे। . विवेचन - प्रथम भावना में सूत्रकार ने श्रोत्रेन्द्रिय संयम का उपदेश दिया है। इनमें विविध वादिन्त्रों के स्वर, ताल, नृत्य-नाटकादि में होने वाली शब्द-ध्वनियाँ, गीत कथा-कहानी, रास, युवती स्त्रियों के मोहक कण्ठ-स्वर, आभूषणों के हिलने या परस्पर टकराने से उत्पन्न रणकारादि ध्वनि और हास्य-विनोदादि सुनने का निषेध किया है। यदि अकस्मात् वैसे शब्द सुनाई दे, तो उनमें प्रीति, राग एवं आसक्ति नहीं करने का उल्लेख किया है। इस भावना के उपरोक्त पर्व-भाग में श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा होने वाले राग. से बचने की शिक्षा दी गई है। आगे द्वेष-निवारण विधान किया जाता है। पुणरवि सोइंदिएण सोच्चा सहाई अमणुण्णपावगाइं। किं ते? अक्कोस-फरुसखिंसण-अवमाणण-तजण-णिब्भंछण-दित्तवयण-तासण-उक्कूजिय-रुण्ण-रडियकंदिय-णिग्घुट्ठरसिय-कलुण-विलवियाई अण्णेसु य एवमाइएसु सद्देसु अमणुण्ण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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