Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 347
________________ 330 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** माला, मुणाल - कमल की माल, दोसिणा - रात्रि की चांदनी, पेहुणउक्खेवग - मोर के पिच्छों का पंखा, तालियंटवीयणग - ताड़ का पंखा, जणियसुहसीयले - इन वस्तुओं से उत्पन्न होने वाला सुखदायक शीतल, य - और, पवणे - पवन, गिम्हकाले - ग्रीष्मकाल में, सुहफासाणि - सुखदायक स्पर्श वालें, बहूणि - बहुत-से, सयणाणि - शयन, य - और, आसणाणि - आसन, पाउरणगुणे - शीत हरण करने वाला शाल-दुशाला, सिसिरकाले - शीतलकाल में, अंगारपयावणा - अग्नि से तापना, य - और, आयव - सूर्य की धूप का सेवन करना, णिद्ध - स्निग्ध-चिकना, मउय - मृदु, सीय - शीतल, उसिण - उष्ण, लहुय - हल्का, य - और, जे - जो, उउसुहफासा - उन-उन ऋतुओं में सुखदायक स्पर्श वाले पदार्थ, अंगसुहणिव्वइगरा - अंग को सुख देने वाले पदार्थों का स्पर्श करके, अण्णेसु - दूसरे, य - और, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, फासेसु - स्पर्श वाले पदार्थों का स्पर्श करके, मणुण्णभद्दगेसु - मनोज्ञ और सुखकारी, तेसु - उनमें, समणेण - साधु को, ण सज्जियव्वं - आसक्त नहीं होना चाहिए, ण रज्जियव्वं - अनुरक्त नहीं होना चाहिए, ण गिज्झियव्वं - गृद्ध नहीं होना चाहिए, ण मुज्झियव्वं - मूच्छित नहीं होना चाहिए, ण विणिग्यायं आवज्जियव्वं - उन स्पर्शों के लिए किसी जीव की घात नहीं करनी चाहिए, ण लुब्भियव्वं - लुब्ध नहीं होना चाहिए, ण अज्झोववज्जियव्वं - उनके लिए चिन्तित नहीं रहना चाहिए, ण तूसियव्वं - संतोष एवं हर्ष नहीं करना चाहिए, ण हसियव्वंहँसना नहीं चाहिए, सइं- स्मरण, य - और, मई - विचार, तत्थ - उनका, ण कुजा - नहीं करना चाहिए। भावार्थ - पांचवीं भावना स्पर्शनेन्द्रिय संवर है। साधु स्पर्शनेन्द्रिय से,मनोज्ञ और सुखदायक स्पर्शों को स्पर्श कर उनमें आसक्त नहीं बने। वे मनोज्ञ स्पर्श वाले द्रव्य कौन-से हैं ? जिनमें से जलकण बरस रहे हैं, ऐसे मण्डप (फव्वारा युक्त मण्डप) हार (मालाएँ) श्वेत चन्दन, निर्मल शीतल जल, विविध प्रकार के फूलों की शय्या, खश, मोतियों की माला, कमल की माल, इनका स्पर्श करना, रात्रि में निर्मल चांदनी में बैठकर, सो कर या विचरण कर सुखानुभव करना, ग्रीष्मकाल में मयूरपंख का और ताड़पत्र का पंखा झल कर शीतल वायु का सेवन करना और कोमल स्पर्श वाले वस्त्र, बिछौने और आसन का उपयोग करना, शीतकाल में उष्णता उत्पन्न करने वाले वस्त्र-शाल-दुशाले आदि ओढ़ना तथा अग्नि के ताप या सूर्य के ताप का सेवन करना तथा ऋतुओं के अनुसार स्निग्ध, मृदु, शीतल, उष्ण, लघु आदि सुखदायक पदार्थों का और इसी प्रकार के अन्य सुखद स्पर्शों का अनुभव करके आसक्त नहीं होना चाहिए। अनुरक्त, लुब्ध, गृद्ध एवं मूर्च्छित भी नहीं होना चाहिए और उन स्पर्शों को प्राप्त करने की चिंता तथा प्राप्ति पर प्रसन्न, तुष्ट एवं हर्षित नहीं होना चाहिए, इतना ही नहीं, इन्हें प्राप्त करने का विचार अथवा पूर्व प्राप्त का स्मरण भी नहीं करना चाहिए। विवेचन - स्पर्शनेन्द्रिय के वश होकर साधु-साध्वी, संयमधर्म की उपेक्षा नहीं कर दें, इसलिए सूत्रकार भगवंत ने उपरोक्त उपदेश दिया है। सुखशीलिए बने हुए साधु, संयम को दूषित करते हैं। सुखशीलियापन से संयम में क्षति होती है। मुलायम एवं उज्वल वस्त्र, अकारण सुगन्धित तेल की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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