________________ 334 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** एवं पंचमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहिए भवइ / एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं / त्ति बेमि। ॥पंचमं संवरदारं सम्मत्तं॥ शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, पंचमं - पाँचवां, संवरदारं - संवरद्वार, फासियं - स्पृष्ट, पालियं - पालित, सोहियं - शोभित एवं शोधित, तीरियं - तीरित, किट्टियं - कीर्तित, अणुपालियं - अनुपालित, आणाए - आज्ञानुसार, आराहियं - आराधित, भवइ - होता है, णायमुणिणा भगवया - ज्ञातकुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने, पण्णवियं - कहा है, परूवियं - प्ररूपणा की है, पसिद्धं - प्रसिद्ध, सिद्धं - सिद्ध, सिद्धवरसासणं - अपने कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवान् की प्रधान आज्ञा है, इणं- इसके लिए, आघवियं - सम्यक् प्रकार से निरूपण, सुदेसियं - भली प्रकार उपदेशित, पसत्यं - प्रशस्त, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। - भावार्थ - इस प्रकार पंचम संवरद्वार का स्पर्श किया जाता है, पालन और शोधन होता है, पार पहुंचाया जाता है, कीर्तित होता है, आराधना होती है, जिनेश्वर की आज्ञानुसार अनुपालना एवं आराधना होती हैं। ऐसा ज्ञातकुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है। प्ररूपित किया है। यह मार्ग सिद्ध है, प्रसिद्ध है। इसके लिए अपने समस्त कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवंत की मुख्य रूप से आज्ञा है। भगवान् ने इसका निरूपण किया है, भली प्रकार से उपदेश दिया है। भगवान् का यह उपदेश प्रशस्त (मंगलमय) है। ऐसा मैं कहता हूँ। // यह पांचवां संवर द्वार समाप्त हुआ। * "वायणंतरे पुण-एयाणि पंचावि सुव्वय-महव्वयाणि 'लोगधिइकरणाणि, सुयसागरदेसियाणि संजमसीलव्वयसच्चजवमयाणि णरयतिरियदेवमणुयगइविवज्जयाणि सव्वजिणसासणाणि कम्मरयवियारयाणि भवसयविमोयगाणि दुक्खसयविणासगाणि सुक्खसयपवत्तयाणि कापुरिससुदुरुत्तराणि सप्पुरिसजणतीरियाणि णिव्वाणगमणजाणाणि कहियाणि सग्गपवायगाणि पंचावि महब्वयाणि कहियाणि।". Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org