Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 346
________________ पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय-संयम 329 **************************************************************** शब्दार्थ - पुणरवि - पुनः जिब्भिंदिएण - जिह्वेन्द्रिय द्वारा, साइय - स्वाद लेकर, रसाइं - रसों का, अमणुण्णपावगाइं - अमनोज्ञ और बुरे, किं ते - वे कौन-से हैं, अरस - अरस, विरस-विरस, सीयठंडा, लुक्ख - रूखा, णिजप्प - निस्सार, पाणभोयणाई - पानी तथा आहार, दोसीण - रात्रि का पकाया हुआ अन्न, वावण्ण - विकृत स्वाद वाला, कुहिय - सड़ा हुआ, पूइयं - अपवित्र, अमणुण्ण - अमनोज्ञ, विण?- अत्यन्त विकृत अवस्था को प्राप्त, पसूय बहुदुब्भिगंधियाई - जिससे अत्यन्त दुर्गन्ध निकल रही है ऐसा, तित्त - तीखा, कडुय - कडुआ, कसाय - कषैला, अंबिलरस - खट्टा, लिंडणीरसाइं - बिल्कुल नीरस आहार-पानी, अण्णेसु - दूसरे, य - और एवमाइएसु - इसी प्रकार के, रसेसु- रसों का, अमणुण्णपावगेसु - अमनोज्ञ और बुरे, तेसु - उनमें, समणेण - साधु, ण रूसियव्वंद्वेष भाव नहीं लावे, जाव - यावत्, चरेज धम्म - धर्म का आचरण करे। भावार्थ - रसनेन्द्रिय के द्वारा अमनोज्ञ-अरुचिकर-बुरे रसों का आस्वाद लेकर उनमें द्वेष नहीं करे। वे अनिच्छनीय रस कौन-से हैं? उत्तर - अरस, विरस; शीत (ठंडा), रूक्ष और निस्सार आहारपानी, रात्रि में पकाया हुआ, विकृत रस वाला, सड़ा हुआ, बिगड़ा हुआ, घृणित, अत्यन्त विकृत बना हुआ, जिससे अत्यन्त दुर्गन्ध आ रही है ऐसा तीखा; कडुआ, कषैला, खट्टा और अत्यन्त नीरस आहार पानी और इसी प्रकार के अन्य घृणित रसों पर, साधु द्वेष नहीं करे, रुष्ट नहीं होवे और रसना पर संयम रख कर धर्म का पालन करे।। पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय-संयम - पंचमगं फासिदिएण फासिप फासाइं मणुण्णभद्दगाई। किं ते? दग-मंडव-हारसेयचंदणा-सीयल-विमल-जल-विविहकुसुम-सत्थर-ओसीर-मुत्तिय-मुणालदोसिणापेहुणउक्खेवग-तालियंट-वीयणगजणियसुहसीयले य पवणे गिम्हकाले सुहफासाणि य बहुणि सयणाणि आसणाणि य पाउरणगुणे य सिसिरकाले अंगारपयावणा य आयवणिद्धमउयसीय-उसिणलहुआ य जे उउसुहफासा अंगसुहणिव्वुइगरा ते अण्णेसु य एवमाइएसु फासेसुमणुण्णभद्दगेसुण तेसु समणेण सजियव्वं ण रजियव्वं ण गिझियव्वं ण मुमझियव्वं ण विणिग्घायं आवज्जियव्वं ण लुब्भियव्वं ण अज्झोववजियव्वं ण तूसियव्वं ण हसियव्वं ण सइंच मइंच तत्थ कुज्जा। . शब्दार्थ - पंचमगं - पांचवीं, फासिंदिएण - स्पर्शनेन्द्रिय से, फासिय - स्पर्श करके, फासाई - स्पर्शों का, मणुण्णभहगाई - मनोज्ञ और सुखकारी, किं ते - वे कौन से हैं, दगमंडव - जिनमें से जल झर रहा है ऐसे मंडप, हार - हार, सेयचंदण - श्वेत चन्दन, सियलविमलजल - शीतल और निर्मल जल, विविह कुसुमसत्थर - विविध प्रकार के फूलों की शय्या, ओसीर - खश, मुत्तिय - मोतियों की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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