________________ उपसंहार 287 **************************************************************** दिन में ही अधिक बार भोजन करे तथा शाक दाल का भी अधिक सेवन नहीं करे, न प्रमाण से अधिक खावे। साधु उतना ही भोजन करे, जितने से उसकी संयम-यात्रा का निर्वाह हो, चित्त में विभ्रम नहीं हो और धर्म से भ्रष्ट भी नहीं हो। सरस आहार के त्याग रूप इस समिति का पालन करने से साधक की अन्तरात्मा प्रभावित होती है। वह मैथुन-विरत मुनि इन्द्रिय-जन्य विकारों से रहित जितेन्द्रिय होकर . ब्रह्मचर्यगुप्ति का पालक होता है। विवेचन - खान-पान का शरीर पर प्रभाव होता है। पौष्टिक एवं विकार-वर्द्धक आहार से इन्द्रियाँ सशक्त होती हैं और विकार उत्पन्न होता है। यह विकार ब्रह्मचर्य का घातक बन जाता है। इसलिए ब्रह्मचारी को पौष्टिक आहार का त्याग करना आवश्यक है। यह प्रभावना मुख्यत: सातवीं वाड़ से सम्बन्ध रखती है। किन्तु अतिमात्रा में आहार करने रूप आठवीं वाड़ तथा उपलक्षण से नौवीं वाड़ से भी सम्बन्धित है, क्योंकि इस भावना का भाव शरीर पोषण त्याग से है। नौंवी वाड़ शरीर की शोभा बढ़ाने पर प्रतिबन्ध लगाती है। तात्पर्य यह की ब्रह्मचर्य की पाँच भावनाओं मे नौ वाड़ का समावेश हो जाता है। उपसंहार एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणंतं च एसो जोगो णेयव्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्वजिणमणुण्णाओ।. शब्दार्थ - एवमिणं - यह, संवरस्स - संवर, द्वारं - द्वार, सम्मं - भली-भांति, संवरियं - पालन करना, होइ - होता है, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित-सुरक्षित, इमेहिं - इन, पंचहिं - पाँच, कारणेहिं - कारणों से, मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया द्वारा रक्षण करना, णिच्चं - सदैव, आमरणंतं - मरण पर्यंत, एस जोगो - इस व्रत का, णेयव्वो - पालन करना, धिइमयाधैर्य-सम्पन्न, मइमया - बुद्धिमान, अणासवो - अनाश्रवक, अकलुसो - कलुषता-रहित, अच्छिद्दो - छिद्र-रहित, अपरिस्सावी - कर्मों के प्रवेश से रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश-रहित, सव्वजिणमणुण्णाओ - सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित। भावार्थ - इस प्रकार पांच भावनाओं से युक्त इस संवरद्वार का सम्यक् रूप से पालन करने से महाव्रत सुरक्षित रहता है। इसलिए धैर्य सम्पन्न, बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि मन, वचन और काया से इस चौथे महाव्रत की रक्षा करता हुआ, इन पांच भावनाओं का जीवनपर्यन्त पालन करता रहे। यह महाव्रत, आस्रव का निरोधक, कलुषित भावों से रहित शुभ भावों से युक्त, छिद्र-रहित, कर्मों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org