Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 317
________________ 300 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ **************************************************************** शब्दार्थ - जत्थ - जहाँ, ण कप्पइ - नहीं कल्पता, गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंबदोणमुह-पट्टणासमगयं - ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन और आश्रम में पड़ा हुआ, किंचि - कुछ भी पदार्थ, अप्पं वा बहुं वा - मूल्य से अल्प हो या बहुत, अणुं वा थूलं वा - प्रमाण से छोटा हो या बड़ा, तस-थावर-काय-दव्वजायं - वह द्रव्य त्रसकाय रूप हो या स्थावरकाय रूप हो, मणसा वि - मन से भी, परिघेत्तुं - ग्रहण करने का, ण हिरण्ण-सुवण्ण-खेतवत्थु - चांदी, सोना, क्षेत्र और वास्तु-गृह भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, ण दासीदास-भयग-पेसहयगयगवेलगं - दासी, दास, भृत्य, प्रेष्य, घोड़ा, हाथी और बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, ण जाण-जुग्गसयणासणाइ ण छत्तगं - रथ, डोली, शयन आदि और छत्र ग्रहण करना भी नहीं, कल्पता, ण कुंडिया ण उवाणहा - कमण्डलू और जूते भी नहीं, ण पेहुण-वीयण-तालियंटगा - मोर-पिच्छी, बांस आदि का बीजना और तालपत्र के पंखों का ग्रहण करना भी नहीं कल्पता, ण यावि-अय-तउय-तंबसीसगकंस-रययजायसव - और लोहा/बंग, ताम्र, सीसा, कास्य, चांदी और सोना, मणिमुत्ताहार-पुडगसंखदंत-मणि-सिंग-सेल-काय-वरचेल चम्म-पत्ताइं महरिहाई - मणि, शंख, दन्तमणि, प्रधान दाँत, सींग, पाषाण, उत्तम काँच, वस्त्र और चर्मपात्र भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, परस्स - दूसरे के हृदय में, अज्झोववाय - इच्छा उत्पन्न होना, लोह जणणाई - लोभ को उत्पन्न करने वालों, परियड्डेउं - इन्हें ग्रहण करने की, गुणवओ - अपरिग्रह रूप गुण वाले को योग्य नहीं, या वि पुष्फ-फल-कंद-मुलाइयाई - और पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा, सणसत्तरसाई - सण नामक धान जिनमें सत्तरहवाँ है ऐसे, सव्व-धण्णाइं - सभी धान्यों को भी, तिहिं वि जोगेहिं परिघेत्तुं - मन, वचन और काय रूप तीनों योगों से ग्रहण नहीं करे। ओसह-भेसज-भोयणट्ठयाए - औषध, भेषज्य और भोजन के लिए, संजएणं - संयति पुरुष के लिए, किं कारणं - इसका क्या कारण है? अपरिमियणाणदंसणधरेहिं - अपरिमित ज्ञान तथा दर्शन को धारण करने वाले, सीलगुण-विणय-तव-संजमणायगेहिं - शील, गुण, अहिंसा आदि विनय और तप-संयम की उन्नति करने वाले, तित्थयरेहिं - चार तीर्थों की स्थापना करने वाले, सव्वजगजीववच्छलेहिं - जगत् भर के जीवों के वत्सल, तिलोंयमहिएहिं - तीनों लोकों द्वारा पूजित, जिणवरिदेहिं - जिनेन्द्र देव ने, एसजोणी - यह पुष्प फल रूप योनि-उत्पत्ति स्थान, जंगमाणंत्रस जीवों को, दिट्ठा - देखा है, ण कप्पइ - मुनियों को नहीं कल्पता, जोणि समुच्छेओ - योनि का विनाश करना, तेण - इस कारण, वज्जति - वर्जन करते हैं, समणसीहा - श्रेष्ठ मुनि। भावार्थ - अपरिग्रह महाव्रत के धारक को ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मण्डप, द्रोणमुख, पत्तन और आश्रम में रही हुई कोई भी वस्तु लेना नहीं कल्पता है। वह वस्तु अल्प-मूल्य वाली हो या बहुमूल्य वाली, छोटी हो या बड़ी, त्रस रूप हो या स्थावर काय रूप, उसे लेने की साधु मन से भी इच्छा नहीं करे। चांदी, सोना, क्षेत्र, वास्तु, दास, दासी, भृत्स, प्रेष्य (बाहर भेजा जाने वाला सेवक) घोड़ा, हाथी, गाय, बकरियें, भेड़ आदि पालकी, रथ, शयन, आसन, छत्र, कमण्डलु, पगरखी, मोरपंखी, . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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