________________ 302 - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** खाजा, शाक आदि तथा प्रणीत आहार आदि का अपने उपाश्रय में या दूसरे के घर में अथवा वनप्रदेश में संग्रह करके रखना, सुव्रती साधुओं को नहीं कल्पता। जं वि य उद्दिट्ट-ठविय-रइयग-पज्जवजायं पकिण्णं पाउयरण-पामिच्चं मीसगजायं कीयगडं पाहुडं च दाणट्ठपुण्णपगडं समणवणीमगट्ठयाए वा कयं पच्छाकम्मं पुरेकम्मं णिइकम्मं मक्खियं अइरित्तं मोहरं चेव सयंग्गहमाहडं मट्टिउवलित्तं अच्छेजं चेव अणीसटुं जं तं तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य अंतो वा बहिं वा होज समणट्ठयाए ठवियं हिंसा-सावजसंपउत्तं ण कप्पइ तं वि य परिघेत्तुं। . उहित - उद्दिष्ट-साध के उद्देश्य से बनाया हुआ। ठविय - स्थापित-साधु के लिए रखा हुआ। रइयगं - रचित-फिर से बनाया-बिखरे हुए चूरे को लड्डु जैसा बनाया हुआ। पजवजायं - पर्यवजात-साधु के निमित्त एक पर्याय से दूसरी पर्याय में बदला हुआ। पकिण्ण - प्रकीर्ण-जिसमें से बूंद या कण गिर रहे हों ऐसा गिराते हुए दिया जाता हुआ। पाउरयण - प्रादुष्करण-अन्धेरे में रहे हुए पदार्थ को दीपक आदि से प्रकाशित किया हुआ। पामिच्चं - प्रामित्य-साधु को देने के लिए उधार लाया हुआ। मीसगजायं - मिश्रजात-साधु और गृहस्थ दोनों के लिए सम्मिलित बना हुआ। कीयगडं - क्रीत-साधु के निमित्त खरीदा हुआ.। पाहुडं - प्राभृत-साधु के आगमन की संभावना से मेहमानों को पहले या पीछे भोजन कराना। दाणट्ठा - दान देने के लिए बनाया हुआ आहारादि। पुण्णपगडं - पुण्य के लिए बनाया हुआ।. समणवणीमगट्ठयाए कयं - शाक्यादि भिक्षु और गरीब भिखारियों के लिए बनाया हुआ। पच्छाकम्मे - पश्चात् कर्म-आहारादि देने के बाद हाथ अथवा पात्र धोने आदि से आरम्भ की संभावना हो। पूरेकम्मं - पूर:कर्म-देने के पूर्व हाथ आदि धोने या अन्य प्रकार से दोष लगावे। णिइकम्मं - नैत्यिक कर्म-सदैव एक घर से लेना। मक्खियं - मेक्षित-सचित्त जल आदि से संस्पृष्ट। अइरित्तं - अतिरिक्त-शास्त्र में बताये हुए प्रमाण से अधिक भोजन करना। मोहरं - मौखर्य-दाता की प्रशंसा करने से मिला हुआ आहारादि। सयग्गहं - स्वयं ग्रहण-दाता की इच्छा बिना अपने-आप ग्रहण किया हुआ। आहडं - आहृत-साधु को दान देने के लिए सामने लाया हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org