________________ निर्ग्रन्थों का अन्तर्दर्शन 309 **************************************************************** अब्भिंतर-बाहिरम्मि - आभ्यंतर तथा बाह्य, तवोवहाणाम्मि - तपस्याओं में, सुटुज्जुए - भलीभांति उद्यम करने वाला, खंते दंते य - क्षमावान् और जितेन्द्रिय, हियणिरए - अपना और पर का हित करने वाला, ईरियासमिए - ईर्यासमिति युक्त, भासासमिए - भाषा-समिति युक्त, एसणासमिए - एषणासमिति युक्त, आयाणभंडमत्त-णिक्खेवणा-समिए - आदान-भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति युक्त, उच्चार-पासवणखेलसिंघाण-जल्ल-परिठावणिया-समिए - उच्चार-प्रश्रवण-खेल-सिंघाण-जल्ल परिस्थापनिका समिति से युक्त, मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते - मनोगुप्त, वचनगुप्त और कायगुप्त, गुत्तिंदिए - इन्द्रियों का गोपनकरने वाला, गुत्तबंभयारी - ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, चाई - त्यागी, लजू - लज्जाशील, धण्णे - धन्य, तवस्सी - तपस्वी, खंतिखमे - क्षमाशील, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, सोहिए - शोभा सम्पन्न, अणियाणे - निदान-रहित, अबहिल्लेस्से - शुभ लेश्याओं से युक्त, अममे - ममत्व-रहित, अकिंचणेपरिग्रह-रहित, छिण्णगंथे - ग्रंथियों को छेदन करने वाला, णिरुवलेवे - कर्म-लेप से रहित होने वाला। भावार्थ - इस प्रकार धर्म में स्थित साधु सभी प्रकार के संग-सम्बन्ध और परिग्रह से विमुक्त होता है। परिग्रह में उसकी रुचि भी नहीं रहती। वह मोह-ममता और स्नेह-बन्धन से मुक्त रहता है। निरारम्भी और निष्परिग्रही निर्ग्रन्थ समस्त पापों से विरत होता है। वह 'वासी चन्दन समान कल्प' वाला होता है। जिस प्रकार चन्दन का वृक्ष, उसे काटने वाली वसूले की धार को भी अपनी सुगन्ध देता है, उसी प्रकार मानापमान से रहित निर्ग्रन्थ, अपने निन्दक, ताड़ना-तर्जना और वध करने वाले के प्रति भी द्वेष नहीं रखता और चन्दन का विलेपन कर अर्चन करने वाले अनुरागी के प्रति राग नहीं करता। वह दोनों पर समभाव रखता है। ऐसे निर्ग्रन्थं के लिए तृण और मणि-मुक्ता तथा मिट्टी का ढेला और स्वर्ण एक समान होता है। उनका न तो तृण और पत्थर पर द्वेष है तथा न मणि मुक्ता और स्वर्ण में राग है। वह सम्मान और अपमान में भी भेद-भाव नहीं कर समभाव रखता है। जिस की पापकर्म अथवा भोगवासना रूपी रज शांत हो चुकी है, जिसने राग और द्वेष को उपशान्त कर दिया है, जो ईर्यादि पांच समितियों से सम्पन्न है, सम्यग्दृष्टि से युक्त है और समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्व में समभाव रखता है, वह 'श्रमण' होता है। ऐसे उत्तम गुणों का धारक सन्त, श्रुतज्ञान का धारक और सरलस्वभावी होता है। वह निर्ग्रन्थ-श्रमण, संसारी जीवों के लिए शरणभूत-रक्षक है। समस्त जीवों के प्रति उसके हृदय में वात्सल्य भाव (हित-कामना) रहती है। वह सत्यभाषी मुनि, अनन्त संसार-सागर को तैर कर किनारे पहुंच चुका है। ऐसा शुद्ध संयमी श्रमण, दीर्घतम संसार भ्रमण कराने वाले मोह के तन्तु को काट कर नष्ट कर देता है। वह मृत्यु का पार पाकर मृत्युंजय बनने के लिए सतत आगे बढ़ रहा है। वह समस्त संशयों से मुक्त होकर संशयातीत हो चुका है। पांच समिति और तीन गुप्ति रूपी आठ प्रवचन-माता के बल से आठ कर्मों की ग्रंथी को तोड़ने में वह समर्थ होता है। मोह महारिपु के सुभट रूप जाति आठ मद का मंथन करके वह नष्ट कर देता है। वह स्व-समय-अपने सिद्धान्त-निर्ग्रन्थप्रवचन में कुशल होता है। वह सुख और दुःख को निर्विशेष-हर्ष-शोकादि रहित-समान अनुभव करता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org